________________
१०४
धर्मशास्त्र का इतिहास
धर्मसूत्र ( २६ । १३।११), पू० मी० सू० (६।१।१५ ) पर व्याख्या करते हुए शबर ने लिखा है कि स्मृतियों में वर्णित कन्या - विक्रय शिष्टों द्वारा अमान्य ठहराया गया है ।१७ उपर्युक्त प्रमेय के समर्थन में अन्य उदाहरण देना आवश्यक नहीं है । और देखिए जे० बी० बी० आर० ए० एस० जिल्द २६ (ओल्ड सीरीज़, १६२४, पृ० ८३ - ६८ ) एवं वही न्यू सीरीज, जिल्द १ एवं २ (१६२५, पृ० ६५-१०२ ) ।
अब हम पूर्व मीमांसासूत्र पर ही चर्चा करेंगे । प्रत्येक शास्त्र के विषय में चार अनुबन्ध ( अनिवार्य तत्त्व ) ठहराये गये हैं । यथा -- विषय (जिसका विवेचन किया जाता है), प्रयोजन, सम्बन्ध ( प्रयोजन से शास्त्र का सम्बन्ध ) एवं अधिकारी ( वह व्यक्ति जो शास्त्राध्ययन के लिए योग्य या समर्थ हो ) । १८ श्लोकवार्तिक में आया है -- ' जब तक किसी शास्त्र या कर्म का प्रयोजन घोषित नहीं होता तब तक उसे कोई ग्रहण नहीं करता' ( न तो पढ़ता या करता है ) । 19 अतः पू० मी० सू० का प्रथम सूत्र विषय को उपस्थित करता है और शास्त्र का प्रयोजन व्यक्त करता है । २० उस सूत्र का कथन है--'अब यहाँ से धर्म को जिज्ञासा एवं विचार करना चाहिए । इस शास्त्र का प्रयोजन से सम्बन्ध साध्य तथा साधन का है, अर्थात् यह शास्त्र धर्मज्ञान की प्राप्ति का साधन है । अत: जैसा कि शास्त्रदीपिका (पू० मी० सू० पर) का कथन है, इस शास्त्र का उपर्युक्त विषय है धर्म, वेदार्थ नहीं ( तस्माद् धर्म इत्येव शास्त्रविषयो न वेदार्थ इति ) । अधिकारी वही है जिसने वेद का या इसके एक अंश का अध्ययन शुरू से किया हो; पू० मी० सू० के छठे अध्याय में इसका विशद वर्णन है ।
(
१७. विक्रयो हि श्रूयते शतमतिरथं दुहितृमते दद्यात्, 'स्मतं च श्रुतिविरुद्धं विक्रयं नानुमन्यन्ते' (पू० मी० सू० (२६।१३।११) जहाँ प्रथम वाक्य आया है और देखिए मनु पू० मी० सू० (६८१८ ) पर शबर ने 'यथैव स्मृतिः धर्मे कुर्वीतेति च । एवमिदमपि स्मर्यंत एव, अन्यतरापायेऽन्यां कुर्वीतेति' उद्धृत किया है। आप० ध० (२|५|११| १२-१३ ) में दो सूत्र आये हैं, यथा- 'धर्मप्रजा कुर्वीत' एवं 'अन्यत... कुर्वीत' ( थोड़ा सा अन्तर है ) ।
१८. पूर्वमीमांसा के विषय में चार अनुबन्ध संक्षिप्त रूप में यों हैं - 'शास्त्रे धर्मादिविषयः, तदवबोधः
प्रयोजनं त्रैर्वाणकोऽधिकारी, विषयविषयिभावादयः सम्बन्धाः ।'
१६. सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वापि कस्यचित् । यावत्प्रयोजनं नोक्तं तावत्तत्केन गृह्यते ॥ श्लोकवा०
( प्रतिज्ञासूत्र ) १२, बालक्रीडा (याज्ञ० १११, पृ० - २) द्वारा उद्धृत ।
२०. अथातो धर्मजिज्ञासा सूत्रमाद्यमिदं कृतम् । धर्माख्यं विषयं वक्तुं मीमांसायाः प्रयोजनम् ॥ श्लोकवार्तिक ( प्रतिज्ञासूत्र ) ११ । अथ का अर्थ है आनन्तर्य अर्थात् गुरु से वेदाध्ययन के उपरान्त, जो पहले ही हो चुका है। शास्त्रदीपिका में आया है ( पृ० १२ ) - तत्सिद्धमध्ययनादनन्तरं धर्मजिज्ञासा कर्तव्येति । सा चतुविधा धर्मस्वरूप प्रमाण-साधन - फलैः । प्रतिज्ञासूत्र के श्लोक १८ पर न्यायरत्नाकर की टीका यों है—'योयं पूर्वोक्तेन प्रयोजनेन सह शास्त्रस्य साध्यसाधन- सम्बन्धः स एव शास्त्रारम्भहेतुः । इस प्रसिद्ध कथन से मिलाइए: 'प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते' (श्लोकवा०, सम्बन्धाक्षेपपरिहार, श्लोक ५५ ) । प्राभाकर सम्प्रदाय के लेखक गण कहते हैं कि पू० मी० सू० (१।१।२) में 'धर्म' शब्द का अर्थ है 'वेदार्थ' । देखिए बृहती पर ऋजुविमलापञ्जिका ( पृ० २० ) – 'चोदनासूत्रेण चोदनालक्षणः कार्यरूप एव वेदार्थ:, न सिद्धरूप इति प्रतिज्ञातम्। तदनेन भाष्येण व्याख्यायते । धर्मशब्दश्च वेदार्थमात्रपरः । '
,
Jain Education International
आर्षे गोमिथुनम् - इति' ( ६।१।१० ) पर एवं ६।१।१५ पर) शबर । देखिए आप० ध० सू० ३१५३) जहाँ 'आर्षे गोमिथुनं शुल्कम्' आया है । नातिचरितव्येति, धर्मप्रजासम्पन्न दारे नान्यां
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org