Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 309
________________ २६२ धर्मशास्त्र का इतिहास के उल्लेख में लगे हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धियां योग के महत्त्वपूर्ण अंग अवश्य हैं। वैखानसस्मार्तसूत्र में आया है कि योगी लोगों के बीच से अचानक अदृश्य हो सकता है, बहुत दूर की वस्तुओं को देख सकता है तथा बहुत दूर का स्वर सुन सकता है। योगसत्र के पाद ३ में उल्लिखित सभी संयमों के परिणामों का उल्लेख अनावश्यक है। उदाहरणस्वरूप कछ दिये जा रहे हैं। हाथी की शक्ति पर संयम करने से व्यक्ति हाथी की शक्ति प्राप्त कर सकता है (३१२४). सूर्य पर संयम करने से सात लोकों का ज्ञान हो सकता है (३।२६), चन्द्र के संयम से तारों की व्यवस्था का ज्ञान हो सकता है (३।२७), नाभिचक्र के संयम से शरीर की व्यवस्था (३।२६ यथा तीन दोष--वात, पित्त एवं कफ तथा सात धातुएँ-चर्म, रक्त, मांस, स्नायुओं, अस्थियों, मज्जा एवं वीर्य) का ज्ञान हो सकता है। स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म (तन्मात्राएँ), अन्वय एवं पञ्चभतों के संयम से तत्त्वों पर जय होती है और इस जय से अणिमा आदि सिद्धियों का उदय होता है और शरीर में सिद्धि की उपलब्धि होती है ।(यथा-पृथिवी अपने कठोर पाषाण-खण्डों से योगी को भीतर जाने से रोक नहीं सकती, अग्नि जला नहीं सकती आदि-आदि)। ४११ में पतञ्जलि का कथन है कि सिद्धियाँ पाँच रूपों में उदित होती हैं, यथा--(१)कछ शरीरों में जन्म लेने (यथा पक्षी के रूप में जन्म लेकर, जो आकाश में बहुत ऊँचाई तक जा सकता है), (२) कुछ ओषधियों के प्रयोग से, (३) कुछ मन्त्रों के जप से, (४) तप से (जो नियमों में एक है) तथा (५) समाधि द्वारा, जिनमें प्रत्येक अपने पूर्ववर्ती से श्रेष्ठ है । ७५ ७४. स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमार् भूतत्वजयः। ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तद्धर्मानभिधातश्च । रूपलावण्यबलवजसंहननत्वानि कायसम्पत्। योगसूत्र (३।४४-४६) । 'स्वरूप' में पाँच तत्त्वों के गुण पाये जाते हैं और उसकी व्याख्या पृथिवी की कठोरता, जल की द्रवता (रसता), अग्नि की उष्णता, वायु की गतिशीलता तथा आकाश की विभुता से की गयी है। तत्त्वों का चौथा रूप 'अन्वय' ख्याति (प्रकाश), क्रिया एवं स्थिति के गुणों का द्योतक है। भाष्य में आया है-'अन्वयिनो गुणाः प्रकाशप्रवृत्तिस्थितिरूपतया सर्वत्रवान्वयित्वेन समुपलभ्यन्ते।' देखिए योगसूत्र (२।१८) : 'प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गाथं दृश्यम् ।' 'प्रकाश', 'क्रिया' एवं 'स्थिति' क्रम से सत्त्व, रज एवं तम नामक गुणों के द्योतक हैं। और देखिए सांख्यकारिका (१३)। पांचवा 'अर्थवत्त्व' पाँच तत्त्वों में पाया जाता है और अनुभूति एवं आत्मा की उपलब्धि में उपयोगी होता है। 'वजसंहननत्व' वज के समान शरीर की कठोरता की प्राप्ति, 'वजस्य इव संहननं संहतिः स्स्य, तस्य भावः वजसंहननत्वम् ।' भाष्य ने 'तद्धर्मानभिघातश्च' को इस प्रकार समझाया है--'पृथ्वी मूर्त्या न निरुणद्धि योगिनः शरीरादित्रियां, शिलामप्यनुविशतीति । नापः स्निधाः क्लेदयन्ति । नाग्निरुष्णो दहति... आदि।' ७५. जन्मौषधिमन्त्रतपःसमाधिजाः सिद्धयः। योगसूत्र (४।१) । अर्नेस्ट वुड ('योग', १६५६, पेंगुइन प्रन्थमाला) ने लघिमा के विषय में (पृ० १०४) लिखा है--'मुझे स्मरण है, एक बूढ़ा योगी पार्श्वशायी रूप में या लेटे हुए खुली भूमि पर लगभग ६ फुट ऊपर उठ गया और उसी रूप में आधा घण्टा रुका रहा और दर्शक लोग उसके और भूमि के बीच में अपनी छड़ियाँ आर-पार करते रहे।' वुड ने आगे लधिमा का एक और उदाहरण दिया है, जिसे सिक्किम की राजकुमारी ने अपनी आँखों से देखा था। ए० कोयेस्टलर ने अपने ग्रन्थ 'दि लोटस एण्ड दि रॉबॉट' (लन्दन, १६६०, पृ० ११४) में लिखा है कि उन्हें श्री वुड का उदाहरण सन्देहपूर्ण लगता है, क्योंकि वुड ने निश्चित तिथि एवं स्थान की सूचना नहीं दी है। उन्होंने यह बल देकर कहा है कि लघिमा पर कोई भी प्रयोग Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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