Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 368
________________ कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त ३५१ 3 ६६।११) । प्राचीन काल में स्वर्ग ऐसा स्थल माना जाता था, जहाँ अधिक से अधिक कर्मों के फल का आनन्द लिया जाता है । इस लोक के फल ( यथा --- सम्पत्ति, वीर पुत्रों ) के लिए स्तुति निःसन्देह की जाती थी, किन्तु अमृतत्व एवं स्वर्ग के आनन्द को सर्वाधिक मूल्य दिया जाता था । ऋ० (१०।१६।४ ) में अग्नि से प्रार्थना की गयी है कि वह मृत को उन लोगों के लोक में ले जाये जिन्होंने अच्छे कर्म किये हैं ( ताभिर्वनं सुकृतां उलोकम् ) । 'सुकृतां लोकम्' शब्द अथर्ववेद ( ३।२८/६, १८ | २|७१ ) एवं वाज० सं० ( १८।५२ ) में भी आये हैं । ऋ० (६।११३।७-१० ) में वह यजमान जो इन्द्र को सोम अर्पण करता है, प्रार्थना करता है कि वह स्वर्ग में अमर रूप में रख दिया जाय, जहाँ अनन्त प्रकाश रहता है, विवस्वान के पुत्र यम राजा हैं, जहाँ आनन्द एवं आह्लाद है और जहाँ कामनाएँ और उनकी पूर्ति है । अमरत्व के लिए सभी देवों की स्तुतियाँ की गयी हैं, यथा अग्नि की (ऋ० १११३४७, ४/५८/१, ५५४/१०, ६।७।४ ), मरुतों की ( ऋ० ५।५५/४ ), मित्र एवं वरुण की ( ऋ० ५/६३/२), विश्वेदेवों की ( ऋ० १० ५२५ एवं १०।६२।१ ), सोम की ( १ ६१ १, ६।६४।४, ६।१०८।३ ) । किन्तु दुष्कृत्य करने वालों के भाग्य के लिए ऋग्वेद में कुछ नहीं कहा गया है । ब्राह्मण-ग्रन्थों में सत्कर्मों के फलों एवं दुष्कर्मों के प्रतिकार के विषय में पर्याप्त वर्णन मिलता है । शत० ब्रा० ( १२६१1१ ) में प्रतिकार की भावना व्यक्त की गयी है। यही बात मांस भक्षण के विषय में मनु एवं विष्णुधर्मसूत्र में कही गयी है, जिससे ऐसा अभिव्यक्त है -- "वह जीव जिसका मांस मैं यहाँ खाता हूँ, दूसरे लोक में मुझे खायेगा, विज्ञ लोग 'मांस' शब्द के मूल या उद्भव के विषय में ऐसा घोषित करते हैं ।" शतपथब्राह्मण ( ११।६।१।३-६ ) में एक विलक्षण कथा आयी है। भृगु से, जो अपनी विद्या के कारण गर्वीले हो गये थे और अपने को पिता से भी अधिक विद्वान् समझते थे, उसके पिता वरुण ने चारों दिशाओं में पूर्व से उत्तर तक जाने को कहा और लौट आने पर देखी हुई सभी घटनाओं का विवरण माँगा। सभी दिशाओं में भृगु को भयंकर दृश्य देखने को मिले, पूर्व में उन्होंने लोगों को एक-दूसरे को छिन्न-भिन्न करते देखा, एक-एक कर हाथ उखाड़ते यह कहते सुना, 'यह तुम्हारे लिए, यह मेरे लिए।' उन्होंने कहा, 'यह भयंकर हैं।' उन लोगों ने कहा, 'इन लोगों ने हमारे साथ सामने के लोक में किया, अतः हम लोग प्रतिकार में ऐसा कर रहे हैं।' तब उन्होंने उत्तर में देखा कि चिल्लाते एवं रोते हुए लोगों द्वारा चिल्लाते एवं रोते हुए लोग पीटे जा रहे हैं। जब उन्होंने कहा, 'यह तो भीष्म ( भयंकर या भीषण ) है' तो उन लोगों ने उत्तर दिया, 'इन लोगों ने हमारे साथ ऐसा ही... यह प्रतिकार है।' यह एक लम्बी गाथा है, जिसका वर्णन यहाँ अनावश्यक है । यह कथा सम्भवतः 'जैसे को तैसा' वाली कहावत चरितार्थ करती है । इतना तो स्पष्ट है कि शतपथब्राह्मण के काल तक यह धारणा बँध चुकी थी कि जो व्यक्ति एक जीवन में दुष्कृत्य करता है वह दूसरे जीवन में उसी व्यक्ति द्वारा, जिसका अनभल वह किये रहता है, दुष्कृत्य का उत्तर अथवा प्रतिकार पाता है । शत० ब्रा० एवं तै० ब्रा० ने कई बार 'पुनर्मुत्यु' (बार-बार मरना, अर्थात् बार-बार जन्म लेना एवं मरना ) को जीत लेने अथवा उसको दूर कर तस्तथा शृणु यथा शृणोरत्रेः कर्माणि कृण्वतः । ऋ० (८१३६/७ ) ; यही पुनः ८|३७|७ में आया है ( सुन्वतः के स्थान पर रेभतः आया है); त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः ऋ० (६०६६।११) । ३. एतस्माद्वै यज्ञात्पुरुषो जायते । स यद्भवा अस्मिँल्लोके पुरुषोऽन्नमत्ति तदेनममुष्मिँल्लोके प्रत्यत्ति शतपथ (१२।६।१।१ ) ; मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांस मिहाद्भयम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः । । मनु ( ५५५), विष्णुधर्मसूत्र ( ५१७८ ); 'मां' का अर्थ है मुझको एवं 'सः' का अर्थ 'वह जीव' और मांस शब्द (जिसमें दोनों मिले हैं) का अर्थ वह है जो ऊपर कहा गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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