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हिन्दू संस्कृति एवं सभ्यता की मौलिक एवं मुख्य विशेषताएँ
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न दिया जाय और उसे गुप्त रखा जाय । देखिए इस खण्ड का अध्याय २६ एवं छान्दोग्योपनिषद् (३/२/५, इस खण्ड का अध्याय ३२), श्वेताश्वतरोपनिषद् ( ६।२२), कठोपनिषद् ( ३।१७ ), बृह० उप० ( ३।२।१३, याज्ञवल्क्य एवं आर्तभाग ने ब्रह्म के विषय में सबके समक्ष विवेचन नहीं किया) । 'उपनिषद्' शब्द का अर्थ ही 'गुप्त सिद्धान्त' हो गया ( तै० उप० २६ एवं ३ | १० ) । अन्य प्राचीन देशों में भी गूढ़ सिद्धान्तों को गुप्त रखने की परम्परा थी ( देखिए सेण्ट मार्क ४|११ ३४-३५ ) । हठयोगप्रदीपिका ( १|११ ) में भी इसी प्रकार की व्यवस्थाएँ पायी जाती हैं (अध्याय ३२) १७ आधुनिक काल में बहुत-से लेखक मूर्तिपूजकों की भर्त्सना करते हैं । इस विषय में देखिए इस खण्ड का अध्याय २४ । गणेश या काली या सरस्वती या लक्ष्मी की मूर्तियों के पूजक पूजा या उत्सव के उपरान्त उन मूर्तियों को जल ( नदी, तालाब, पुष्करिणी आदि) में प्रवाहित कर देते हैं । इससे स्पष्ट है कि पूजक लोग काष्ठ या मिट्टी की वस्तु की पूजा नहीं करते, प्रत्युत उनके मन में भगवान या किसी देवता के प्रति एक संवेगात्मक भावना होती है, जो उस वस्तु में कुछ समय के लिए प्रतिष्ठापित रहती है । यदि जन साधारण से प्रश्न किया जाय तो यही उत्तर मिलेगा कि 'परमात्मा सभी स्थान में हैं, तुम में हैं, मुझ में हैं और काष्ठ की मूर्ति में हैं' - 'हममें तुममें, खड्ग खम्भ में, सबमें व्यापक राम' एक पुरानी कहावत है । नृसिंह पुराण (६२।५-६, अपरार्क द्वारा याज्ञ० १।१०१ की टीका में उद्धृत, पृ० १४० ) में आया है कि मुनियों के अनुसार हरि की पूजा ६ प्रकार से की जा सकती है, यथा - जल में, अग्नि में, अपने हृदय में, सूर्य मण्डल में, वेदिका पर १८ या मूर्ति में । विष्णुधर्मोत्तरपुराण को यह बात ज्ञात थी कि मूर्ति-पूजा का प्रचलन बहुत काल उपरान्त कलियुग में हुआ है ( ३०६३।५-७ एवं २० ) । यूरोप में बहुत-से ईसाइयों के धर्म में मूर्ति पूजा देखी जाती है १९ । प्रस्तुत लेखक ने अपनी आँखों से देखा है कि यूरोप के बहुत से चर्चा में मडोन्ना एवं सन्तों की मूर्तियाँ रखी रहती हैं, जिनकी पूजा की जाती है और जिनके समक्ष प्रार्थनाएँ की जाती हैं। अतः यदि यह कहा जाय कि यूरोप के बहुत से इसाई मूर्ति पूजक हैं, तो इसे कोई असत्य नहीं सिद्ध कर सकता। चार्वाक को छोड़ कर सभी दर्शनों को लगभग सत्य के सन्निकट समझा गया है। सभी के मिथ्या तथा किसी एक के सत्य होने की बात ही नहीं उठती ।
(१२) विशाल संस्कृत साहित्य - भारत ने कम-से-कम तीन सहस्र वर्षों के भीतर तलस्पर्शी विशाल संस्कृत साहित्य का निर्माण किया । साहित्य के विविध रूपों का जिस प्रकार संवर्धन भारत में हुआ है, वैसा संसार के किसी भी देश में सम्भव नहीं हो सका है। जीवन का कोई भी अंश ऐसा नहीं है, जिस पर संस्कृत
१७. हठविद्या परं गोप्या योगिना सिद्धिमिच्छता ।
भवेद्वीर्यवती गुप्ता निर्वार्या तु प्रकाशिता ।। हठयोगप्रदीपिका ( १|११ )
१८. अप्स्वग्नौ हृदये सूर्ये स्थण्डिले प्रतिमासु च । षट्स्वतेषु हरेः सम्यगर्चनं मुनिभिः स्मृतम् ॥ अग्नौ क्रियावतां देवो... योगिनां हृदये हरिः ॥ नृसिंहपुराण (६२।५-६ ) | देखिए स्मृतिचन्द्रिका (आह्निक, पृ० १६८, घर्पुरे द्वारा सम्पादित) जिसमें इसी विषय में हारीत एवं मरीचि की स्मृतियों के श्लोक उद्धृत हैं। देखिए विष्णुधर्मोत्तर पुराण ( ३।६३।५-७ एवं २० ) ।
१६. देखिए सर चार्ल्स इलियट कृत 'हिन्दूइज्म एण्ड बुद्धिज्म' (खण्ड-१), जहाँ इसी प्रकार का दृष्टिकोण व्यक्त किया गया है । और देखिए विलियम जेम्स कृत 'वेराइटीज आव रिलिजिएस एक्सपीरिएंस ' ( पृ० ५२५ - ५२७ ) एवं सर आलिवर लॉज कृत 'मैन एण्ड दि यूनिवर्स' ( लण्डन, १६०८, पृ० २४६ - २४७ ) ।
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