Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 441
________________ ४२४ धर्मशास्त्र का इतिहास देखते हैं। यह सम्भव है कि रूढ़िवादी लोग अबोध लोगों के साथ मिलकर इस नयी व्यवस्था को उखाड़ फेंकें। किन्तु यह तभी सम्भव हो सकता है जबकि गांधी-युग के उज्ज्वल व्यक्तित्व धीरे-धीरे कम हो जायेंगे। हिन्दू-समाज की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं में एक है संयुक्त परिवार का प्रचलन जो सहस्रों वर्षों से चला आ रहा है। यह प्रचलन मिताक्षरा कोटि का है जो वंगाल (जहाँ दायभाग का प्रचलन है) को छोड़कर सारे भारत में पाया जाता है । संयुक्त परिवार प्रणाली की विशेषता यह है कि परिवार (कुटुम्ब) के सभी सदस्य समांशी (रिक्थाधिकारी) होते हैं, अर्थात् यदि कटम्ब का कोई सदस्य मर जाता है तो उसका टम्ब का कोई सदस्य मर जाता है तो उसका धन सभी सदस्यों, जिनमें उसका पुत्र भी सम्मिलित है (यदि कोई हो तो) को प्राप्त हो जाता है, स्त्रियों को कुटुम्ब की सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं होता, उन्हें केवल विवाह के व्यय एवं भरण-पोषण का अधिकार प्राप्त होता है, संयुक्त परिवार का कोई भी व्यक्ति इच्छापत्र (यहाँ तक कि पिता भी नहीं) या विक्री या बन्धक द्वारा संयुक्त 'सम्पत्ति हस्तान्तरित नहीं कर सकता, केवल कुटुम्ब की परम्परा के अनुसार कुछ आवश्यकताओं के लिए कुछ छूट मिल सकती है। बाह्य आक्रमणों एवं कुशासनों के रहते हुए भी कई शतियों तक संयुक्त परिवार पद्धति एवं जाति प्रथा ने ही हिन्दू समाज को विच्छिन्न होने से बचा रखा था। हिन्दू उत्तराधिकार कानून (सन् १९५६ का ३०वाँ) ने मिताक्षरा संयुक्त परिवार में दो अतिक्रमणकारी परिवर्तन कर दिये हैं। कानून के ३०वें विभाग की व्याख्या ने यह व्यवस्था दी है कि कोई भी पुरुष सदस्य अपने इच्छापत्र द्वारा रिक्थाधिकार को समाप्त कर सकता है। यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन है। दूसरा परिवर्तन विभाग ६ में संक्षेपतः इस प्रकार है। यदि मिताक्षरा पद्धति वाला कोई समांशी इस कानून के लागू हो जाने के उपरान्त मर जाता है और उसको कोई पुत्र नहीं है, केवल एक पुत्री है या किसी मृत पुत्र की पुत्री है या किसी मत पुत्री की पुत्री है तो उसकी सम्पत्ति किसी अन्य समांशी (या रिक्थाधिकारी) को नहीं प्राप्त होगी, प्रत्यत उपर्युक्त वंशजों को होगी और उनको वही अंश प्राप्त होगा जो विभाजन होने पर उस व्यक्ति को मरने के पूर्व मिलता। इस कानून के पूर्व उपर्यक्त उल्लिखित व्यक्तियों को यदि व्यवित पुत्रहीन मर जाता तो कोई अंश न प्राप्त होता। इन दो परिवर्तनों के फलस्वरूप मिताक्षरा पद्धति केवल खोखली रह गयी है। जब यह कानन पारित हो रहा था तो कुछ लोगों ने वक्तव्य दिया कि मिताक्षरा पद्धति को सर्वथा समाप्त कर देना चाहिए, किन्तु वैसा नहीं न्द कानन में इस प्रकार के परिवर्तनों से स्त्रियों के प्रति उदारता का प्रदर्शन किया गया है। किन्तु कुछ विषयों में, ऐसा लगता है, मानो विधायकों ने बदला (प्रतिहिंसा) लिया है। स्थानाभाव से केवल एक उदाहरण उपस्थित किया जा रहा है। हिन्दू उत्तराधिकार कानन के विभाग ८ एवं उत्तराधिकारियों के परिशिष्ट वर्ग १ एवं २ के अन्तर्गत यदि कोई सम्पत्तिवान व्यक्ति केवल माता एवं पिता को छोड़ कर मर जाता है (अर्थात् यदि उसके पुत्र न हों, न पत्नी हो और न कोई अन्य व्यक्ति हों) तो माता को उसकी (पुत्र की) सारी सम्पत्ति मिल जाती है और पिता को क छ भी नहीं, क्योंकि माता वर्ग १ के अन्तर्गत रखी गयी है और पिता वर्ग २ के अन्तर्गत और विभाग ८३ (क एवं ख) में नियम ऐसा है कि वर्ग २ के उत्तराधिकारी तभी अधिकार पाते हैं जब वर्ग १ में कोई शेष न हो। याज्ञ० (२।१३५) के अनुसार पुत्रहीन व्यक्ति के मर जाने पर क्रम से विधवा, तब पुत्री, उसके उपरान्त पुत्री का पुत्र (या जितने पुत्र हों सभी), उसके उपरान्त पितरों (माता एवं पिता दोनों, द्विवचन का प्रयोग हुआ है) उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं। कुछ टीकाकारों के मतानुसार माता को पिता की अपेक्षा वरीयता दी जानी चाहिए, किन्तु कछ लोग पिता को वरीयता देते हैं और कछ लोग दोनों को समान रूप से उत्तराधिकारी घोषित करते हैं। राज्यसभा (कीसिल आव स्टेट्स) में पिता को माता के साथ ही वर्ग १ में रखा गया । किन्तु लोक-सभा में माता को वर्ग १ में तथा पिता को वर्ग २ में रखा गया। संविधान की धारा १५ में लिंग, धर्म एवं जाति आदि के आधार पर भेद करना निषिद्ध माना गया है। माता एवं पिता में जो अन्तर यहाँ प्रकट है, वह लिंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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