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भावी वृत्तियाँ उत्तराधिकार कानून ने संयुक्त परिवार-पद्धति का नाश कर दिया है, यद्यपि स्पष्टत: कानून द्वारा इसका विघटन नहीं किया गया है।
आज हमें न केवल जाति-प्रथा के विरोध में आक्षेप या वाक्ताण्डव प्रदर्शित करने हैं और सभी भारतीयों की भावात्मक एकता के लिए प्रयत्न करने हैं, प्रत्युत हमें एक ऐसी आचार-संहिता का निर्माण करना है जो हममें दिन-प्रति-दिन के आचरणों में तद्विषयक सचेतता लाये । हम यहाँ पर आचार-संहिता के विस्तृत विवेचन में नहीं पड़ सकते, क्योंकि, उसके लिए एक पृथक् ग्रन्थ की आवश्यकता पड़ेगी। कुछ आवश्यक प्रत्यक्ष निर्देश एवं प्रस्ताव रखे जा सकते हैं जिनके आधार पर कुछ योग्य लेखक ग्रन्थ उपस्थित कर सकते हैं। हममें विचारों का मन्थन होना चाहिए। यह सम्भव है कि आरम्भ में दारुण एवं महान कठिनाइयों का सामना करना पड़े, जैसा कि देवों एवं असुरो द्वारा किये गये समुद्र-मन्थन में करना पड़ा था किन्तु समुद्रम.थन के उपरान्त विष के साथ अमृत भी उत्पन्न होता ही है।
हमें अपनी कठिनाइयों के समाधान में निराशा नहीं प्रदर्शित करनी है। निराशा का अर्थ है नाश एवं . मत्यु । शनियों से हमारे देश की जो दशा रही है उससे हमें साहस नहीं छोड़ना है। हमें गत तीन सहस्र वर्षों की अपनी विलक्षण उपलब्धियों पर ध्यान देना है और धर्मशास्त्रों के प्राचीन ऋषियों की निम्नलिखित सम्मतियों को स्मरण रखना है। मनु (४।१२७) में आया है * -“गत असफलताओं के कारण अपने को गहित नहीं करना चाहिए, मृत्युपर्यन्त समृद्धि की आकांक्षा करनी चाहिए और उसे दुर्लभ नहीं समझना चाहिए।" ऐसा ही याज्ञवल्क्य (१११५३) ने भी कहा है-'किसी विद्वान ब्राह्मण , सर्प, क्षत्रिय एवं अपने को गहित नहीं समझना चाहिए। (इन लोगों की अवमानना नहीं करनी चाहिए), मृत्य पर्यन्त समद्धि (श्री) की आकांक्षा करनी चाहिए और किसी के मर्म को स्पर्श नहीं करना चाहिए (अर्थात् किसी के कर्मों या छिद्रों का उपहास नहीं करना चाहिए।) " हम अपने पूर्व पुरुषों की उपलब्धियों पर गर्व करते हैं। यदि हम अपने देश के उच्चतम विकास के लिए स्वार्थ की भावना एवं यश की प्राप्ति की इच्छा से रहित होकर वर्षों तक एकता के साथ प्रयत्न करते रहें तो कोई कारण नहीं है कि हमारा देश भी संसार में अन्य देशों से आगे न बढ़ जाये या कम से कम उनके समकक्ष में न आ जाये। ईशोपनिषद् (२, वाज० सं० ४६०१२) में सामान्य जनों के लिए ऐसा आदेश है--'इस लोक में शास्त्र द्वारा विहित) कर्मों को करते हुए व्यक्ति को सौ वर्षों तक जीने की आकांक्षा करनी चाहिए।' ऐतरेय ब्राह्मण (३३।३) ने शुनःशेप की गाथा में कहा है कि लोगों को सदा कर्तव्य करते रहना चाहिए और इस पर बल दिया है कि जो कर्म नहीं करता है, उसके पास श्री (समृद्धि) नहीं आती है (नानाश्रान्ताय श्रीरास्तीति)। स्वयं ऋग्वेद (४।३३।११) में आया है कि देव लोग उनसे मित्रता नहीं करते जो अपने को कर्म करके थका नहीं डालते (न ऋते श्रान्तस्थ सख्याय देवाः)।
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का मुख्य उद्देश्य था अन्य देशों एवं लोगों पर सैनिक एवं राजनीतिक शक्ति की प्राप्ति न करना, इसने भारतीयों को आक्रमणात्मक एवं सुरक्षात्मक उद्योगों के प्रति उदासीन रखा और धन की प्राप्ति के लिए विशाल परिमाण में संघों के निर्माण के लिए भी लोगों को उत्साहित नहीं किया। किन्तु आज हमें वास्तविकता से मुख नहीं मोड़ना है। आज विश्व में प्रतिद्वन्द्विता का साम्राज्य है, चतुर्दिक संघर्ष-ही-संघर्ष दृष्टिगोचर
७. नात्मानमवम येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः। आ मृत्योः श्रियमविच्छेन्नैनां मन्येत दुर्लभाम् ॥ मनु० (४११३७); विप्राहिक्षत्रियात्मानो नावज्ञेयाः कदाचन । आ मृत्योः श्रियमाकांक्षेन्न कंचिन्मर्माणि स्पृशेत ॥ याज्ञ० (१३१५३) ।.
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