Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 446
________________ ४२६ भावी वृत्तियाँ आधृत हैं, अत्यन्त वैज्ञानिक हैं और उनमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत परिवर्तन करने से भयंकर परिणामों की उत्पत्ति हो सकती है। एक अन्य वर्ग भी है, जिसके लोग कहते हैं: 'हमारे साथ क्यों झगड़ा करते हो ? काल स्वयं आवश्यक परिवर्तनों को लायेगा ।' कुछ ऐसे लोग भी हैं जो दूसरी सीमा तक जाते हैं और संसार में देवी या आध्यात्मिक तत्त्वों एवं जीवन-मूल्यों के अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं । कुछ लोग वाञ्छित परिवर्तनों के लिए नियमों के निर्माण की आवश्यकता पर बल देते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भारतीय संस्कृति के आवश्यक मूल्यों को नींव के रूप में ले लीजिए और उस पर आज के काल की आवश्यकताओं के अनुसार ढाँचा खड़ा कीजिए।' हिन्दू धर्म सदैव विकसता आया है और परम्पराओं में सदैव परिवर्तन होते रहे हैं। देखिए इस विषय में इस खण्ड के अध्याय २६ एवं ३३ । जो परिवर्तन होते रहे वे किसी विधायिका-सभा द्वारा नहीं होते थे, प्रत्युत उनके पीछे टीकाकारों एवं निबन्ध लेखकों के ग्रन्थ एवं वक्तव्य होते थे, जिनके फलस्वरूप भारत के विभिन्न भागों में विधि-विधानों, लोकाचारों, प्रयोगों, धार्मिक एवं आध्यात्मिक मतों के विविध स्वरूप प्रकट हो गये । अंग्रेजों के आगमन केपूर्व भारत विविध राज्यों में बँटा था और कोई ऐसी विधायिका सत्ता नहीं थी जो सम्पूर्ण देश के लिए एक समान व्यवहार ( कानून ) स्थापित कर सके। प्राचीन एवं मध्यकालीन धर्मशास्त्र लेखकों का मत था कि राजा को वर्णों एवं आश्रमों से सम्बन्धित शास्त्रीय विधियों के विरोध में जाने का अधिकार नहीं है। इस विषय में देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड ३ ( पृ० ६८ - १०१ ) । व्यवहारों एवं विश्वासों के विषय में परिवर्तन सदैव होते रहे, किन्तु ये परिवर्तन विद्वान् भाष्यकारों द्वारा ही उद्भूत हो पाते थे, क्योंकि वे समाज में बैठ गये परिवर्तनों का उल्लेख कर उन्हें शास्त्रीय रूप दे देते थे। आज स्पष्टतः समाज में तीन वर्ग पाये जाते हैं - ( १ ) सनातनी लोग या ऐसे लोग जो परिवर्तन नहीं चाहते, (२) कट्टर सुधारवादी यथा मूर्ति-पूजा विरोधी आदि तथा (३) समन्वयवादी, जो प्राचीन एवं नवीन बातों का समावेश चाहते हैं । अब प्रश्न यह है कि प्राचीन प्रयोगों अथवा आचारों में किनको सुरक्षित ( या पालित) करना चाहिए या किनको हटा देना चाहिए तथा किन नये आदर्शों एवं जीवन-मूल्यों को अपना लेना चाहिए । जीवन-मूल्यों के विषय में यहाँ पर स्थानाभाव से अधिक नहीं कहा जा सकता । मूल्यों (लक्ष्यों) का निर्धारण अधिकांशतः वातावरण जन्य होता है। अभी एक या दो शती पूर्व दासता या जातीय वैषम्य एवं गर्व, फैक्टरियों में छोटीछोटी अवस्था वाले बच्चों को पसीने से लथपथ देखना मानो ईसाई देशों में नैतिक तटस्थता का द्योतक था । किन्तु आज उन देशों में कुछ लोग इसे सामान्यतः घृणित एवं अनैतिक मानते हैं। किसी काल में पशु यज्ञों को बड़ी महत्ता प्राप्त थी और उसे परलोक सम्बन्धी महान् लक्ष्य का रूप दिया जाता था । किन्तु उपनिषद्काल में अहिंसा को प्रमुख महत्त्व दिया गया । फिर भी हमारी संस्कृति के कुछ ऐसे विशिष्ट मूल्य हैं, जो तीन सहस्र वर्षो से आज तक चले आये हैं, यथा- इसकी चेतना कि सम्पूर्ण लोक अनन्त, नित्य तत्त्व (परम ब्रह्म) की अभिव्यक्ति है, इन्द्रिय निग्रह, दान एवं दया । आज का युग लोकनीतिक है और लोकनीति के महत्त्वपूर्ण मूल्य हैं - न्याय, स्वतन्त्रता, समानता एवं भातृभाव । किन्तु अभाग्यवश उन लोकनायकों में जो आज लोकनीति का जय घोष करते हैं, बहुत से ऐसे हैं जो स्वार्थ एवं ईर्ष्या की मुट्ठी में हैं। लार्ड ऐक्टन ने लिखा है - " सभी प्रकार की सत्ता व्यक्ति को भ्रष्ट करती है, पूर्ण एवं अनियंत्रित सत्ता व्यक्ति को पूरी तरह भ्रष्ट कर देती है ।" कौटिल्य ने दो सहस्र वर्षों से अधिक पहले कहा कि शक्ति मन को मत्त कर देती है । देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड ३ ( पृ० ११४, जहाँ पाद-टिप्पणी १५१ में उद्धरण दिये हुए हैं ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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