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भावी वृत्तियाँ
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भेद ही तो है ! सम्भवतः विधायक लोगों ने इस प्रकार के अन्तर द्वारा शतियों से चले आये हए स्त्री-सम्बन्धी अन्याय की क्षतिपूर्ति करनी चाही है। सन् १६५६ का हिन्दू उत्तराधिकार कानून मस्लिम कानून से भी आगे बढ़ गया है, क्योंकि इसने परिशिष्ट वर्ग १ में १२ प्रकार के व्यक्तियों को रखा है जो एक-साथ ही उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं। कुछ उदाहरण ऐसे हैं जहाँ मृत व्यक्ति की सम्पदा को पाने वाले वर्ग १ के व्यक्ति २० या इससे भी अधिक होते हैं, यथा मृत के ५ पुत्र, ५ कन्याएँ तथा पहले से मृत पुत्रों एवं पुत्रियों की संतानें । सम्भवत: संसार में कोई अन्य देश ऐसा नहीं है, जहाँ किसी के मरने पर इतने व्यक्ति एक साथ ही उत्तराधिकारी हो उठे। इसका परिणाम यह होगा कि सम्पत्ति के बहुत से ट कड़े हो जायेंगे और लगातार झगड़े एवं मुकद्दमे में लगे रहेंगे। इससे दरिद्रता का विभाजन (बंटवारा) होता जायगा। सन् १६५६ के पूर्व हिन्दू कानून के अन्तर्गत स्त्रियों को पुरषों से उत्तराधिकार के रूप में सामान्यतः एक सीमित सम्पत्ति (अर्थात केवल जीवन भर के लिए) प्राप्त होती थी। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी एवं एक भाई या भतीजे (भाई के पुत्र) को छोड़कर मर जाये (और उसका कोई पुत्र न हो) तो उसकी सम्पत्ति उसकी पत्नी को जीवन-काल के लिए मिल जाती थी और उसकी मृत्यु के उपरान्त सम्पत्ति मृत व्यक्ति के भाई (यदि जीवित हो तो) को या उसके पूत्रों आदि को मिल जाती थी। किन्तु अब (सन् १६५६ के उपरान्त) विधवा को उस सम्पत्ति पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो गया है अर्थात अब वह उसे बेच सकती है, उसका दान कर सकती है या उसके लिए इच्छा-पत्र बना सकती है। देखिए १६५६ के हिन्दू उत्तराधिकार कानून का विभाग १४ । इतना ही नहीं, यह विभाग उन विधवाओं को जो १६५६ के पूर्व सीमित रूप में उत्तराधिकारिणी हुई थीं गतकालसापेक्ष पूर्ण अधिकार देता है । इसे यों समझिए, मान लीजिए कोई व्यक्ति सन् १६५० में मर गया और उसके पीछे उसकी विधवा एवं भाई बचे हैं। ऐसी स्थिति में विधवा को सीमित रूप से उत्तराधिकार प्राप्त होगा अर्थात् वह अपने पति की सम्पत्ति को न तो बेच सकती है और न किमी को दे सकती है, और यदि वह १९५६ के पूर्व मर गयी होती तो उसके मृत पति के भाई को उत्तराधिकार प्राप्त हो जाता। किन्तु मान लीजिए जब १६५६ का कानून पारित हुआ वह जीवित है और मृत पति की सम्पति पर उसका अधिकार प्राप्त है। कानून के पारित हो जाने पर उसका अधिकार अचानक विस्तत हो जाता है। अब वह उस सम्पत्ति को किसी को दे सकती है या इच्छा-पत्र द्वारा अपने भाई को ही दे सकती है या उसे सर्वथा वञ्चित कर सकती है। स्त्रियों का यह स्थानाधिकार प्रतिहिंसा की भावना से ओत-प्रोत है। अभी सामान्य जनता इस विषय में विशेष नहीं जानती। किन्तु आगे चलकर भयंकर विवाद खड़े हो सकते हैं। ऐसे लोगों को कुटुम्ब की सम्पत्ति प्राप्त हो सकती है। जिनसे उस कुटुम्ब के लोग भारी लड़ाई ठान सकते हैं, क्योंकि कुटुम्ब की सम्पत्ति के प्रति सदस्यों का स्वाभाविक मोह होता है और जब मृत व्यक्ति की विधवा नये कानून के अनुसार अपने पति की सम्पत्ति को कुटुम्ब में ही किसी सदस्य को न देकर किसी बाहरी व्यक्ति को बेच देती है, या दान दे देती है या उसे इच्छा-पत्र दे देती है तो कुटुम्ब के सदस्यों को बहुत बुरा लग सकता है और पाठक कल्पना कर सकते हैं कि किस प्रकार के भमि-यद्ध जन्म ले सकते हैं। सन १९५४ से लेकर सन् १६५६ तक जितने कानन पारित हुए हैं और उनसे जो बातें समाज में आयीं, यथा- एकस्त्री-विवाह को मान्यता प्राप्त हई, अनेक पत्नीनता दण्डित मानी गयी, लड़कियों एवं लड़कों के लिए विवाह करने की अवस्था क्रम से १५ एवं १८ मानी गयी, पुरुषों एवं पत्नियों, दोनों को समान नियमों के आधार पर विवाहोच्छेद (तलाक) का अधिकार दिया गया, पुत्री एवं उसकी संतानों को उत्तराधिकार का पूर्ण अधिकार दिया गया, पति या विधवा दोनों को, मृत व्यक्ति द्वारा पहले से ही पुत्रीकरण न कर लेने पर भी, पुत्र या पुत्री को गोद लेने का अधिकार दे दिया गया-उनसे स्त्रियों की स्थिति में बड़े-बड़े परिवर्तन हो गये हैं और ये परिवर्तन स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त सभी कानून सम्बन्धी परिवर्तनों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली बन गये हैं।
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