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हिन्दू संस्कृति एवं सभ्यता को मौलिक एवं मुख्य विशेषताएं
हैं और सस्ती ख्याति कमाते हैं । क्रिस्टोफर ईशरवुड द्वारा सम्पादित 'वेदान्त फार दि वेस्टर्न वर्ल्ड (एलेन एण्ड अन्विन, लण्डन, १६४८ ) में प्रसिद्ध लेखक आल्डअस हक्सले ने रहस्यवाद एवं योग की पुस्तकों के बाहुल्य से लोगों को सावधान किया है ( पृ० ३७६ )
(१४) दर्शन - हमारे दर्शन के अधिकांश का केन्द्रीय बिन्दु छा० उप० (६।१ ) में पाया जाता है, जहाँ उद्दालक ने अपने अभिमानी पुत्र श्वेतकेतु से कहा है- 'क्या तुमने उस शिक्षा के बारे में पूछा है जिसके द्वारा व्यक्ति वह सुनता है जो सुना नहीं जा सकता, जिसके द्वारा वह प्रत्यक्षीकृत किया जाता है जिसका प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सकता तथा वह जाना जाता है जो नहीं जाना जा सकता; ' और जब श्वेतकेतु ने उस शिक्षा के बारे में पूछा तो उद्दालक ने उसकी लम्बी व्याख्या की ( ६ । १ - १६) और अन्त में इन शब्दों में निष्कर्ष निकाला - 'तत्त्वमसि' (तुम वह आत्मा हो ) । भारतीय दर्शन बहुमुखी है और उसकी fare शाखाओं में जो ज्ञान भरा पड़ा है वह संसार के किसी भी प्राचीन देश में नहीं पाया जाता । 'सर्व दर्शन संग्रह' में अद्वैत सिद्धान्त के अतिरिक्त पन्द्रह विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्त संक्षिप्त रूप से विवेचित हैं । मुख्य दर्शन छह हैं-- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा एवं उत्तर मीमांसा ( या वेदान्त ), जिनके fare में हमने प्रस्तुत खण्ड के कतिपय अध्यायों ( २८-३३ ) में पढ़ लिया है, और देख लिया है कि उनका धर्मशास्त्र से क्या सम्बन्ध है । भारतीय दर्शन के विशिष्ट रूप ये हैं - यह आध्यात्मिकता पर विशेष ध्यान देता है, इसे जीवन में उतारना है न कि केवल विवेचन मात्र करना है, यह वास्तविक तत्त्व की खोज करता है, इसके लिए एक नैतिक भूमिका अनिवार्य है, सत्य की खोज के लिए तर्क का विस्तृत रूप से आश्रय लिया जाता है तथा परम्परा एवं प्रमाण को स्वीकार किया जाता है । चार्वाक के अतिरिक्त सभी दर्शनों का सम्बन्ध मोक्ष ( जिसके कई नाम हैं, यथा- मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण, अमृतत्व, निःश्रेयस, अपवर्ग) से है और सभी ( चार्वाक को छोड़कर) कर्म एवं पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं । भारतीय दर्शन के विषय में यहाँ पर कुछ और लिखना आवश्यक नहीं है ।
(१५) कलाएं, स्थापत्य, तक्षण, चित्रकारी -- इन विषयों पर बहुत-से ग्रन्थ लिखे गये हैं। भारत के प्राचीन स्मारकों में जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं उनमें साँची के स्तूप, अजन्ता की गुफाओं की चित्रकारी, एलोरा का कैलास मन्दिर एवं कोणार्क का मन्दिर अत्यन्त प्रभावशाली हैं ।
कुछ पुराणों में इन विषयों का उल्लेख हुआ है । मत्स्यपुराण ( २५२।२ - ४ ) ने वास्तुशास्त्र के १८ व्याख्याताओं के नाम लिये हैं, यथा-भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित्, विशालाक्ष, पुरन्दर, ब्रह्मा, कुमार, नन्दीश, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र एवं बृहस्पति । अध्याय २५३ - २५७ में प्रासादों एवं भवनों के निर्माण तथा अध्याय २५८ - २६३ में देव प्रतिमाओं के निर्माण का विवेचन । और देखिए वायुपुराण ( ८1१०८, जहाँ राजधानी के निर्माण का उल्लेख है ), अग्निपुराण (अध्याय ४२, १०४१०६) । विष्णुधर्मोत्तर का तीसरा परिच्छेद चित्रसूत्र कहलाता है, क्योंकि नृत्य प्रमुख कला है और चित्र कला उस पर आधृत है । कहा गया है कि चित्रकला सभी कलाओं में श्रेष्ठ है ( ३।३३।३८), वह घर की सर्वोच्च शुभ वस्तु है तथा जो नियम चित्रकला में प्रयुक्त होते हैं वे धातुओं, पाषाण एवं काष्ठ की मूर्तियों के निर्माण में भी उपयोगी होते हैं । ( ३।४३।३१ - ३२ ) । और देखिए अध्याय ३६-४३ ( चित्रकला), ४४८५ ( मूर्ति निर्माण ) तथा अध्याय ८६ ( गृह निर्माण ) । वराहमिहिर ( ५०० - ५५० ई० ) द्वारा प्रणीत बृहसंहिता (म० म० सुधाकर द्विवेदी द्वारा सम्पादित, १८६५ ) में राजा, प्रमुख राजकुमार एवं अन्य लोगों के प्रासादों, भवनों एवं घरों के निर्माण का उल्लेख है । अध्याय ५२ में देव मन्दिरों, अध्याय ५३ में देव-प्रतिमाओं,
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