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भावी वृत्तियाँ
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समय उपस्थित हो सकता है जब देश का सारा कार्य ही ठप्प हो जाये । ऐसा होते-होते बचा भी। रेलवे, डाक एवं तार विभाग की जो देश व्यापी हड़ताल हुई, उससे लोगों की आँखें खुल गयीं । संघों के निर्माण तथा हड़ताल पर रोक लगाने की बात पर उदाहरण के लिए एक प्रयोग के रूप में संविधान निर्माताओं को सोचना चाहिए था ।
एक अन्य आलोचना यह है कि इसमें अब तक बहुत-से सुधार हो चुके हैं। सन् १६५० से अब तक कम-से-कम २८ सुधार हो चुके हैं, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में १७० वर्षों के भीतर केवल २२ सुधार किये गये हैं। प्रथम सुधार डेढ़ वर्ष के भीतर ही किया गया, जिसके फलस्वरूप लगभग १२ धाराओं पर प्रभाव पड़ा, जिनमें तीन तो ऐसी हैं जो मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित हैं, यथा - १५, १६ एवं ३१ । लगभग ढाई वर्षों तक संविधान के निर्माण के विषय में विचार-विनिमय होता रहा तब भी डेढ़ वर्षों के भीतर ही मौलिक अधिकारों के विषय में परिवर्तन करना पड़ा ! इससे तो 'मौलिक अधिकार' शब्दों का अर्थ समझने में गड़बड़ी उत्पन्न हो सकती है । ३१वीं धारा में जो सुधार हुआ है उसके अनुसार यदि किसी की सम्पत्ति अनिवार्य रूप से ले ली जाय तो उसकी क्षति पूर्ति के विषय में वह किसी न्यायालय में दावा नहीं कर सकता। यह व्यक्तिगत सम्पत्ति पर एक गम्भीर आक्रमण है और इसमें अपहरण एवं स्वेच्छाचारिता की गन्ध मिलती है। लोकसभा में निर्दिष्ट संख्या (कोरम) ५० की है, यदि ५० सदस्य उपस्थित हों और उनमें, मान लीजिये, २६ सदस्य यह तय कर दें कि किसी व्यक्ति की कतिपय सम्पत्तियों की अनिवार्य प्राप्ति के लिए निश्चित धन निर्धारित किया जाये जो सम्भवत: बहुत ही कम हो, तो उस व्यक्ति को न्याय का आश्रय लेने का अधिकार नहीं है ।
एक अन्य आलोचना है कि विश्वविद्यालयों को सूची सं० २ (परिशिष्ट ७, राज्य सूची सं० ११ ) में रख दिया गया है, जबकि उन्हें समवर्ती ( कॉन्- करेण्ट ) सूची में रखना चाहिए था । श्रम-सम्बन्धी व्यावसायिक एवं प्राविधिक ( विशेष कला या विज्ञान सम्बन्धी ) प्रशिक्षण को कॉन- करेण्ट सूची (सं० २५) में रखा गया है। क्या विश्वविद्यालयी शिक्षा श्रम प्रशिक्षण के समान सारे देश के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है? केवल ६२ से ६६ (सूची सं० १, केन्द्रीय सूची ) तक के विषय केन्द्रीय प्रशासन के अन्तर्गत हैं । बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय एवं शान्ति निकेतन को क्यों केन्द्रीय प्रशासन के अन्तर्गत रखा गया है ? क्या अन्य विश्वविद्यालय समवर्ती (कॉन - करेण्ट ) सूची में नहीं रखे जा सकते थे ? आठवें परिशिष्ट में भारत की चौदह भाषाओं को राष्ट्रीय भाषा कहा गया है, किन्तु धारा ३४३ (१) में हिन्दी को संघ की भाषा घोषित किया गया है और धारा ३४३ को उपधारा २ में अंग्रेजी को १५ वर्षो तक सहगामिनी भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है और उपधारा ३ में ऐसी व्यवस्था है कि सन् १६६५ के उपरान्त भी लोकसभा अंग्रेजी को उस रूप में रख सकती है । भारत की राष्ट्र-भाषा की समस्या का अभी शान्तिमय समाधान नहीं प्राप्त हो सका है। सभी प्रबुद्ध नागरिकों में राष्ट्रीय एकता की भावना एवं आदर्श भरने के लिए एक बड़े पैमाने पर कार्यक्रम निर्धारित किया जाना चाहिए। उस कार्यक्रम
४. पाठकों को ज्ञात है कि सन् १६६४-६५ में हिन्दी के प्रश्न को लेकर दक्षिण में बड़े पैमाने पर उपद्रव खड़े किये गये । द्रविड़ मुनेत्र कजगम नामक राजनीतिक दल के लोगों ने राजनीतिक चालें चलों, जन-साधारण को उभाड़ा, जुलूस निकाले, बसें, ट्रकें एवं रेलगाड़ियाँ जला डालीं। इतना ही नहीं, ३-४ व्यक्तियों ने बहकावे में आकर अपने को जला भी डाला। इस प्रकार हिन्दी राष्ट्र-भाषा को लेकर धन-जन की हानि हुई। इन राजनीतिक
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