Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 398
________________ कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त अपरार्क० पृ० १२३२ तथा प्रायश्चित्ततत्व पृ० ५२४ में उद्धृत हैं)। पापों की मुक्ति के लिए अन्य साधन भी थे, यथा-तीर्थयात्रा । देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ४, पृ० ५५-५६ एवं पृ० ५५२-५८० । एक अन्य साधन था प्राणायाम-अभ्यास (देखिए वही, पृ० ४२) । अत्यन्त आरम्भिक काल में भी सबके समक्ष पाप-निवेदन करना पापमोचन का एक साधन माना जाता था। वरुण-प्रद्यास नामक चातुर्मास्य यज्ञ में पत्नी को उसके द्वारा स्पष्ट प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से यह स्वीकार करने पर कि उसका किसी प्रेमी से शरीर-सम्बन्ध था, पवित्र मान लिया जाता था और उसे पवित्र कृत्यों में भाग लेने की अनुमति मिल जाती थी । देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, पृ० ५७५-५७६ एवं पृ० १०६८। और देखिए आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।६।२४।१५, १।१०।२८।१६ एवं १।१०।२६३१) । ब्रह्मचारी को संभोग करने के पाप के मोचनार्थ सात घरों में भिक्षा माँगते समय अपने दुष्कृत्य की घोषणा करनी पड़तीथी (गौतम० २३।१८; मनु ११३१२२)। ___ अनुताप-मनु (१२।२२७ एवं २३०) ने व्यवस्था दी है कि कोई भी पापी लोगों के समक्ष पाप-निवेदन करने से, अनुताप करने से, तपों द्वारा, वैदिक वचनों के जप द्वारा तथा (यदि वह तप न कर सके तो) दान द्वारा पाप के प्रतिफलों से मुक्त हो जाता है। व्यक्ति पाप करने के उपरान्त अनुताप करने से पापमुक्त हो जाता है और जब 'मैं ऐसा अब कभी न करूँगा' इस प्रकार प्रतिज्ञा करता है तो वह पवित्र हो जाता है। विष्णुपुराण (२।६।४०) में आया है कि यदि पाप करने के उपरान्त व्यक्ति अनुताप (पश्चात्ताप या परिताप) करता है तो सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है हरिस्मरण । उपर्युक्त कथन वैदिक वचनों तथा धर्मशास्त्र-ग्रन्थों के वक्तव्यों एवं व्यवस्थाओं से यह प्रकट है कि हिन्दुओं के कर्म-सिद्धान्त में पाप-निवेदन की व्यवस्था थी। अतः स्काटलैण्ड के पादरी मैकनिकोल कृत 'इण्डियन थीइज्म' प० २२३ में लिखित यह वक्तव्य कि हिन्दुओं के कर्म-सिद्धान्त में अनुताप को कोई स्थान नहीं है, सर्वथा असत्य एवं भ्रामक है। वास्तव में, हिन्दुओं में ईसाइयों के समान सस्ता 'कन्फेशन' (पाप की स्वीकारोक्ति) नहीं है, प्रत्युत उनमें नरक की यातनाओं एवं दुःखदायी जन्मों की बातें भी पायी जाती हैं। पश्चात्कालीन पौराणिक लेखक बहुत सीमा तक ईसाइयों की सामान्य मान्यता के सन्निकट आ गये थे और हरिस्मरण से अपने को पाप-मक्त समझने लगे। ईसाइयों में ऐसा विश्वास है कि ईसामसीह को पापमोचक समझ कर पापनिवेदन करके पाप से छुटकारा प्राप्त हो सकता है। आश्चर्य है, मैक्निकोल महोदय प्रसंगोचित वचनों एवं पौराणिक बातों को भी पढ़ लेना भूल गये और एक असत्य एवं भ्रामक वक्तव्य दे बैठे । मैक्निकोल महोदय ने अपना ग्रन्थ 'इण्डियन थीइज्म' सन् १६१५ में लिखा था। उनके बहुत पहले से ही बहुत-से पाश्चात्य लेखकों ने, जो ईसाई धर्म के वातावरण में पले थे, ऐसा व्यक्त किया कि मृत्यु के पश्चात् मानव की नियति के विषय में प्राचीन भारतीय सिद्धान्त उसी विषय पर कही गयी बाइबिल की भावनाओं से अपेक्षाकृत बहुत अच्छे हैं और अधिक स्वीकार करने योग्य हैं । हम यहाँ केवल दो-तीन उदाहरणों से ही सन्तोष करेंगे। अबॅरी महोदय ने अपने ग्रन्थ 'एशियाटिक जोंस' (पृ० ३७) में अर्लस्पेंसर को लिखे गये सर विलियम जोंस के एक पत्र का उद्धरण दिया है-'मैं हिन्दू नहीं हूँ, किन्तु मैं भविष्य जीवन से सम्बन्धित हिन्दुओं के सिद्धान्त को ईसाइयों द्वारा अनन्त दण्डों से सम्बन्धित मान्य धारणाओं से अपेक्षाकृत अधिक बौद्धिक, अधिक पवित्र तथा लोगों को दुष्कर्म से दूर रखने में अधिक समर्थ मानता हूँ।' लोवेस डिकिसन ने अपने ग्रन्थ 'रिलिजिएन एण्ड इम्मौरैलिटी' (डेण्ट एण्ड संस, १६११, पृ० ७४) में लिखा है-'वास्तव में, यह सन्तोषप्रद भावना है कि हमारी वर्तमान समर्थताएँ हमारे गत जीवन के कार्यों द्वारा निर्धारित होती हैं और हमारे वर्तमान कर्म पुनः हमारे भावी चरित्र को निश्चित करेंगे।' ओवेन रटर ने, जो 'दि स्केल्स For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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