Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 416
________________ हिन्दू संस्कृति एवं सभ्यता की मौलिक एवं मुख्य विशेषताएँ कांक्षाओं एवं ईहाओं का पूर्ण अभाव हो जाता है। अनुशासनपर्व (१४६।७६-८०) ने धर्म को प्रवृत्तिलक्षण (जिसमें निरन्तर कार्यशीलता पायी जाती है) तथा निवृत्ति लक्षण ( जिसमें लौकिक क्रियाओं एवं अभिकांक्षाओं या कामनाओं का अभाव पाया जाता है) नामक दो भागों में बांटा है। जिसमें दूसरे का अनुसरण मोक्ष के लिए किया जाता है। अनशासनपर्व ने कुछ व्यावहारिक एवं शभकर नियम बनाये हैं, यथा-मनष्य को अपनी समर्थता के अनसार सदा दान देते रहना चाहिए, सदा यज्ञ करते रहना चाहिए और समद्धि के लिए कृत्य करते रहना चाहिए । उचित सम्पत्ति का संग्रहण करना चाहिए और इस प्रकार अर्थात् सचाई (ईमानदारी) से प्राप्त धन को तीन भागों में विभाजित करना चाहिए-संगृहीत धन के एकतिहाई से धर्म एवं अर्थ की प्राप्ति करनी चाहिए, एक तिहाई का व्यय काम के लिए होना चाहिए (अर्थात् पवित्र काम-सम्बन्धी जीवन एवं धर्मविहित अन्य आनन्दों में लगाना चाहिए) तथा एक तिहाई को और बढ़ाना चाहिए। मनु (७६६ एवं १०१) ने भी इसी प्रकार के नियम राजा के लिए निर्धारित किये हैं। और देखिए अनुशासन पर्व (१४४।१०-२५)। ये व्यवस्थाएँ सामान्य जनों के लिए बनायी गयी हैं। रामायण ने एक प्रचलित श्लोक उद्धृत किया है कि मनुष्य असीम दु:ख को भोगने के लिए नहीं गर्हित किया जाता, प्रत्युत यदि वह जीवित रहे, उसके पास सौ वर्षों के उपरान्त भी आनन्द आता है।१२ चौथा पुरुषार्थ मोक्ष बहुत ही कम लोगों द्वारा प्राप्त किया जाता है। यह धनुष नहीं है जिसे प्रत्येक व्यक्ति या कोई भी अपने कन्धे से लटका ले। यह छुरे की धार के समान बहुत ही कठिन मार्ग है (कठोपनिषद् ३३१४), यह भक्ति मार्ग की अपेक्षा बहुत कठिन मार्ग है ( भगवद्गीता १२१५ )। उपनिषदों द्वारा प्रतिपादित मोक्ष का सिद्धान्त यह है-मानव स्वभाव वास्तव में दिव्य है, मानव के लिए ईश्वरत्व की जानकारी प्राप्त करना तथा उससे तादात्म्य स्थापित करना सम्भव है, यही मानव का अन्तिम लक्ष्य होना चाहिए, इसकी प्राप्ति अपने उद्योगों एवं प्रयासों से ही सम्भव होती है, किन्तु इसकी प्राप्ति का मार्ग अत्यन्त कटिन है, इसके लिए अहंकार, स्वार्थपरता एवं सांसारिक विषयासक्ति से विमुख होना पड़ता है। इसके अतिरिक्त एक अन्य कटिनाई भी है। मोक्ष सम्बन्धी धारणा विभिन्न सम्प्रदायों, यथा-न्याय, सांख्य, वेदान्त आदि द्वारा विभिन्न ढंगों से व्यक्त की गयी है। यहाँ तक कि स्वयं वेदान्त में मोक्ष सम्बन्धी धारणा के विषय में विभिन्न आचार्य विभिन्न मत प्रतिपादित करते हैं। कुछ ने घोषित किया है कि मक्ति की चार अवस्थाएँ हैं; यथा-सालोक्य (प्रभु के लोक में स्थान), सामीप्य (सन्निकटता), सारूप्य (प्रभु का ही स्वरूप धारण करना) एवं सायुज्य (समाहित हो जाना) ।१३ इन पर विशेष वर्णन यहाँ नहीं होगा। १२. कल्याणी बत गाथेयं लौकिकी प्रतिभाति मे। एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि ।। -सुन्दरकाण्ड (३४१६) १३. ते० सं० (५।७।१७) में आया है-एतासामेव देवतानां सायुज्यतां गच्छति। किन्तु यह मोक्ष की धारणा से सर्वथा भिन्न है। सायुज्य, सारूप्य एवं सलोकता शब्द ऐ० ब्रा० (२०२४) में भी उल्लिखित हुए हैं। सायुज्य एवं सलोकता बृ० उप० (१।३।२२) में प्रयुक्त हुए हैं। सलोकता, साष्टिता (वही सुख) एवं सायुज्य छा० उप० (२।२०।२) में आये हैं। सूतसंहिता (मुक्तिखण्ड, ३।२८) ने भी मोक्ष की इन अवस्थाओं का उल्लेख किया है। 'सायुज्य' शब्द सयुज् (एक में संलग्न या संयुक्त) से निष्पन्न हुआ है। 'सयुजः वाजान्' (एक में जुते अश्व) ऋ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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