Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 414
________________ हिन्दू संस्कृति एवं सभ्यता की मौलिक एवं मुख्य विशेषताएं करता है, अत: धर्म का हनन (उल्लंघन) कभी नहीं होना चाहिए, नहीं तो धर्म हमें नष्ट कर देगा।' व्यास ने महाभारत का अन्त एक पवित्र प्रार्थना (या अपील) के साथ किया है--'मैं हाथ ऊपर उठा कर उच्च स्वर से कहता है, किन्तु कोई नहीं सुनता है; धर्म से अर्थ एवं काम (सभी कामनाओं) की उत्पत्ति होती है, धर्म का आश्रय क्यों नहीं लिया जा रहा है। धर्म का त्याग किसी वाञ्छित उद्देश्य से नहीं करना न भय से. न लोभ से और न जीवन के लिए ही इसका त्याग करना चाहिए। धर्म नित्य है, सख एवं दुःख अनित्य हैं, जीवात्मा नित्य है, किन्तु वे हेतु या परिस्थितियाँ (जिनके फलस्वरूप यह कार्यशील होता है) अनित्य हैं।' महाभारत में आया है कि तीन (धर्म, अर्थ एवं काम) सभी के लिए हैं, धर्म तीनों में श्रेष्ठ है, अर्थ बीच में आता है और काम सबसे नीचा है, इसलिए जब इनमें से किसी का विरोध होता है तो धर्म का अनुसरण करना चाहिए और अन्य दो को छोड़ देना चाहिए। इससे प्रकट होता है कि अर्थ एवं काम दोनों धर्म के अधीन हैं और तीनों (धर्म, अर्थ एवं काम) आध्यात्मिक लक्ष्य (अर्थात् मोक्ष) के अधीन हैं। हमारे शास्त्र सबके लिए संन्यास की व्यवस्था नहीं देते, किन्तु उन्होंने मूल्यों की एक सोपान-पद्धति निर्धारित की है। मनु (४।३ एवं १५) ने व्यवस्था दी है--'व्यक्ति को अपने (लक्ष्यों) वर्ण आदि की स्थिति के अन कल ही आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तथा बिना किसी की हानि किये अर्थ संग्रह करना चाहिए। किसी को अत्यधिक विषयासक्त होकर तथा शास्त्र द्वारा गर्हित कहे हुए कर्मों द्वारा धन-संग्रह नहीं करना चाहिए और जब उसके पास पर्याप्त धन है, तब भी ऐसा नहीं करना चाहिए और न पापी लोगों से धन प्राप्त करना चाहिए, तब भी नहीं जबकि वह बड़ी कष्टमय अवस्था में पड़ा हुआ हो।' और देखिए आप० ध० सू० (२।८।२०।२२-२३), गौ० ध० सू० (६।४६-४७), याज्ञ० (१।११५) एवं भगवद्गीता (७।११)। किन्तु कौटिल्य के अर्थशास्त्र (११७) में आया है-'अर्थ तीन पुरषार्थों में प्रमुख है, किन्तु कौटिल्य ने भी कहा है कि विषयों का उपभोग इस प्रकार करना चाहिए कि मनुष्य धर्म एवं अर्थ के विरोध में न पड़ जाय और न आनन्दरहित होकर ही जीवन यापन करना चाहिए। अनुशासन पर्व (३।१८-१६) में आया है कि धर्म, अर्थ एवं काम मानवजीवन के तीन पुरस्कार (फल) हैं, इनके लिए प्रयत्न करना चाहिए, किन्तु इस प्रकार कि धर्म के साथ विरोध न उपस्थित हो जाय । मनु (५२५६) ने घोषणा की है कि मांस खाना, मद्य पीना एवं मैथुन करना स्वयं पापमय नहीं हैं, क्योंकि सभी प्राणी इनकी ओर झुके हुए हैं, किन्तु इनसे दूर रहने से बड़े-बड़े पुण्य (उत्तम फल) प्राप्त होते हैं (और इसी से शास्त्र इनकी निवृत्ति या संयम पर बल देते हैं)। और देखिए अरण्यकाण्ड (३०) एवं स्वर्गारोहण (५॥६२)। ___आजकल जब कुछ सुधारों की चर्चा होने लगती है तो अनुदारवादी अथवा रूढ़िवादी या नवविद्वेषी लोग ऐसा तर्क उपस्थित करते हैं कि हमारा धर्म 'सनातन धर्म है' १०, अतः इसमें किसी १०. 'सनातन धर्म' के अत्यन्त प्राचीन प्रयोगों में एक प्रयोग माधववर्मन के खानपुर पत्रक में है (एपि० इ०, जिल्द २७, पृ० ३१२) । इस पत्रक के सम्पादक डा० वी०वी० मिराशी का कथन है कि यह लेख लगभग छठी शती का है। 'सनातनधर्म' शब्द यों आया है : 'यजनयाजनाध्ययनाध्यापनदानप्रतिग्रहाया (य?) श्रुतिस्मृतिविहित सनातनधर्मकर्मनिरताय... आदि' । एक अन्य प्राचीन प्रयोग है ब्रह्माण्डपुराण (२।३३।३७-३८) : अद्रोहश्चाप्यलोभश्च तपो भूतदया दमः । ब्रह्मचर्य तथा सत्यमनुक्रोशः क्षमा धृतिः। सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतदुदाहृतम ।। 'सनातन धर्म' शब्द 'प्राचीन प्रयोग जो अब प्रचलित न हो' के अर्थ में आदिपर्व (१२२॥१८, चित्रशाला संस्करण) में आया तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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