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धर्मशास्त्र का इतिहास
का पद आनुवंशिक था। कुछ अपवादों को छोड़कर ब्राह्मण कभी भी शासक नहीं बने । क्षत्रिय एवं शूद्र अवश्य राजा बने। इसी से एक सामान्यीकरण चल पड़ा कि किसी दल या कुटुम्ब में जन्म होने से उस दल-विशेष या कुटुम्ब के गुणों की प्राप्ति हो जाती है। ब्राह्मण अध्यापक थे, किन्तु वेतन नहीं पाते थे, बुलाये जाने पर पौरोहित्य का कार्य करते थे और दक्षिणा पाते थे, किन्तु लगातार उसके मिलने की कोई सुनिश्चितता या गारंटी नहीं थी। ब्राह्मणों का कोई धार्मिक संगठन नहीं था, जैसा कि ईसाइयों में देखा जाता है, यथा--आर्कविशप, विशप, पुरोहित, डीकन आदि । बौद्धों एवं ईसाइयों की भाँति उनके मठ नहीं थे। वे गृहस्थ थे, उन्हें पुत्र उत्पन्न करने पड़ते थे और उन्हें इस प्रकार शिक्षा देनी पड़ती थी कि वे भी उन्हीं के समान विद्वान् हों और अपनी संस्कृति एवं सभ्यता के अध्ययन, संवर्धन, रक्षण एवं प्रसारण में दत्तचित्त हों तथा अपने समाज के माहात्म्य को अक्षुण्ण रखे रहें।
किन्तु अब जाति-प्रथा एवं वर्ण-व्यवस्था समाप्त-सी हो रही है । लोग नाम मात्र के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र हैं। कानून द्वारा भी बहुत-से दोष दूर किये जा रहे हैं। किन्तु हो क्या रहा है ? पुरानी जातियों के स्थान पर नयी जातियाँ न उत्पन्न हो जायें, इसका महान् डर उत्पन्न हो गया है। कहीं मन्त्रियों, नौकरशाही वालों, व्यावसायिक लक्षपतियों, शक्तिशाली मनुष्यों की पृथक्-पृथक् जातियाँ न बन जायें। ऐसा होने की अपेक्षा तो हमारी प्राचीन जाति-प्रथा ही अच्छी कही जायेगी। वास्तव में, राष्ट्रीयता की भावना के उद्रेक के साथ, निःशुल्क शिक्षा तथा सार्वभौम सुविधाओं आदि के द्वारा हम जाति-प्रथा के दोषों को दूर कर सकते हैं। जनता के बीच बचपन से राष्ट्रीयता की भावना को जगाना परम आवश्यक है। पूरे राष्ट्र के लिए एक शिक्षा-विधान होना चाहिए, नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। जातिवाद को केवल गाली देने से काम नहीं चलेगा, नेता लोग स्वयं हीन स्वार्थवृत्तियों के ऊपर उठेंगे तभी आदर्श मय स्थिति की उत्पत्ति होगी। सार्वभौम आरम्भिक एवं माध्यमिक शिक्षा, अन्तर्जातीय-विवाह तथा संस्कृति विषयक प्रमुख तत्वों के प्रति बद्धमूलता (यद्यपि इस विषय में कुछ अन्तर्भेद तो रहेगा ही) से ही जातियों का विनाश हो सकता है। इसके लिए, उच्च चरित्र वाले, कर्तव्यशील एवं उत्सर्ग करने की प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों की पर्याप्त संख्या की आवश्यकता पडेगी, क्योंकि ऐसे व्यक्ति ही निरपेक्ष होकर जाति-प्रय गली प्रवृत्तियों को दूर कर सकते हैं।
यह नहीं भूलना चाहिए कि उच्च आध्यात्मिक जीवन एवं मोक्ष से शूद्र लोग वञ्चित थे। यह सत्य है कि पूर्वमीमांसा ने शूद्रों के लिए वेदाध्ययन एवं यज्ञ-सम्पादन वर्जित ठहरा दिया था (६।१।२६) । किन्तु उन आरम्भिक कालों में भी ऋषि बादरि ऐसे लोगों ने प्रतिपादन किया था कि शूद्र भी वेदाध्ययन एवं यज्ञ-सम्पादन कर सकते हैं (पू० मी० सू० ६।१।२७)। यह द्रष्टव्य है कि शूद्र लोग आध्यात्मिक जीवन से वञ्चित नहीं थे, वे महाभारत (जिसमें मोक्ष-सम्बन्धी सहस्रों श्लोक हैं) के अध्ययन से, जिसे व्यास ने दया करके नारियों एवं शूद्रों के कल्याण के लिए लिखा था, जो अपने को धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं मोक्षशास्त्र के नाम से पुकारता है (आदिपर्व ६२।२३), जैसा कि भागवतपुराण (१।४।२५) ने उद्घोषित किया है, मोक्ष की प्राप्ति कर सकते थे। एक बात निर्णीत थी कि शूद्र वेदाध्ययन से मोक्ष प्राप्ति नहीं कर सकते थे। शंकराचार्य (वे. सू० १॥३॥३८) ने व्यक्त किया है कि विदुर (आदिपर्व ६३।६६-६७ एवं ११४, १०६।२४-२८, उद्योगपर्व ४११५) एवं धर्मव्याध (वनपर्व २०७) ऐसे शूद्र ब्रह्मविद्याविद् थे और ऐसा कहना असम्भव है कि वे मोक्ष प्राप्त करने के योग्य नहीं थे। यह द्रष्टव्य है कि वैदिक काल में भी रथकार (जो तीन उच्च जातियों में परिगणित नहीं था) को वैदिक अग्नि प्रतिष्ठापित करने की अनुमति थी
और वह होम के लिए वैदिक मन्त्रों का पाठ कर सकता था तथा निषाद को (जो तीन उच्च वर्गों में नहीं था) रुद्र के लिए वैदिक मन्त्रों के साथ इष्टि करने की अनुमति प्राप्त थी। इससे स्पष्ट है कि सूत्रों एवं स्मृतियों के बहुत पहले वैदिक यज्ञों का प्रचार कुछ शूद्रों में भी था। भागवतपुराण (७।६।१०) यह मानने को सन्नद है कि विष्णु भक्त जन्म से चाण्डाल, उस ब्राह्मण से जो विष्णु भक्त नहीं है, उत्तम है ।
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