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हिन्दू संस्कृति एवं सभ्यता को मौलिक एवं मुख्य विशेषताएँ
(३) इस सिद्धान्त पर विश्वास करते हुए कि सार तत्त्व एक है या परमेश्वर एक है, उपनिषदों के ऋषियों ने निष्कर्ष निकाला कि जीवात्मा उस तत्त्व से अभिन्न है। बाहुल्य (या अनेकता) केवल अवास्तव है और यहाँ तक कि मछुआ लोग (मछली मारने वाले), दास, जुआरी लोग तथा निर्जीव पदार्थ सभी इससे अभिन्न हैं। यह वेदान्त-सिद्धान्त हिन्दू धर्म की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विशिष्टताओं में एक है और मानव के आध्यात्मिक विकास में भारत की एक उत्कृष्ट देन है, यद्यपि अन्य देशों में भी कुछ दार्शनिकों द्वारा उपस्थित इस सिद्धान्त के कछ अंश बिखरे हए मिलते हैं। अनेक से एक एवं एक से अनेक ही वेदान्त-सिद्धान्त का केन्द्रबिन्द या अन्तर्भाग है। इस विषय में हमने अध्याय ३४ में विस्तार के साथ पढ़ लिया है। यरोप में दर्शन का अध्ययन स्वयं अपने में लक्ष्य है। प्राचीन भारत में अनेकता में एकता की भावना को शिक्षा एवं समाजशास्त्र का आधार माना गया और ऐसा विश्वास किया गया है कि व्यक्ति के जीवन में इस एकता की अनमति ही परम स्वतन्त्रता (मोक्ष) है।
उपनिषदों की शिक्षा एक सार्वभौम सिद्धान्त है जिसे सभी लोग, जो अच्छी इच्छा रखते हैं, स्वीकार कर सकते हैं। बचपन से चाहे जिस प्रकार के धर्म-प्रवाह में व्यक्ति रहा है वह इस सिद्धान्त के अनुसार मानस रूप से चलने पर धर्मच्युत नहीं हो सकता। व्यक्ति का आत्मा परमात्मा अथवा ब्रह्म से भिन्न नहीं है, यह निष्कर्ष एक महान् निष्कर्ष है और सभी प्रकार के उद्बुद्ध लोगों में विलक्षण उत्स मरने वाला है। बहुत-से उदाहरण उपस्थित किये जा सकते हैं, किन्तु यहाँ केवल दो पर्याप्त होंगे। मुण्डकोपनिषद् (३।२१८) में घोषित है--"जिस प्रकार नदियाँ (समुद्र की ओर) बहती हुई, अपने नामों एवं रूपों को छोड़ती हुई, समुद्र में समाहित हो जाती है, उसी प्रकार वह व्यक्ति जो अनुभूति कर लेता है (जानता है) नाम एवं रूप से स्वतन्त्र होकर उस दिव्य व्यक्ति को प्राप्त करता है जो उच्चतर से उच्चतम है।" यही बात गद्य में प्रश्नोपनिषद (५५) में कही गयी है। कठोपनिषद् (४११५) में आया है-"जिस प्रकार शुद्ध जल शुद्ध जल में डाल दिये जाने पर वही रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार उस ऋषि का आत्मा, जिसने तत्त्वान भूति कर ली है, साक्षात् परमात्मा हो जाता है।” देखिए ड्यूशन का वक्तव्य (जे० बी० बी० आर० ए० एस०, संख्या १८, १८६३, २० वाँ लेख, पृ० ३३०-३४०), वे०, सू० (२।३।४३-ब्रह्म दाशा ब्रह्म दासा ब्रह्ममे कितवा उत)। यहाँ इतना ही पर्याप्त है। वेदान्त अपने सत्य रूप में नैतिकता के लिए सर्वोच्च आश्रय है और उसका सबसे बड़ा आधार है, जन्म एवं मरण के दुःख में सबसे बड़ा सन्तोष है...।
(४) आध्यात्मिक एवं धार्मिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति पर तीन ऋण होते हैं, यथा- देव-ऋण, ऋषि ऋण एवं पित-ऋण। अति प्राचीन वैदिक कालों से ही यह धारणा भारतीय संस्कृति की मौलिक धारणाओं में परिगणित रही है। प्राचीन विद्या के अध्ययन, यज्ञ-सम्पादन एवं पूत्रोत्पत्ति से व्यक्ति क्रम से ऋषि-ऋण, देवऋण एवं पितृ-ऋण से मुक्त होता है। इस विषय में हमने इस महाग्रन्थ के मूल खण्ड २, पृ० २७०, ४२५, ५६०-६१, ६७६, खण्ड ३, पृ० ४१६ में विस्तार से पढ़ लिया है । इन तीन ऋणों में महाभारत एक चौथा ऋण जोड़ देता है, यथा-मनुष्य ऋण, जो अच्छाई अर्थात् लोगों के प्रति किये गये अच्छे व्यवहारों से चुकाया जाता है। यह सिद्धान्त केवल ब्राह्मणों तक ही नहीं सीमित है, प्रत्यत तीनों उच्च वर्णों को तीनों ऋणों से मुक्त होना आवश्यक है (जैमिनि ६।२।३१) । तै० सं० में 'ब्राह्मण' शब्द केवल उदाहरण के लिए है, वास्तव में सभी वर्गों के लिए तीनों ऋणों से मुक्त होना उनका महान कर्त्तव्य है।
(५) पुरुषार्थ की धारणा मानवीय प्रयास (मनुष्य के उद्योग) के ध्येयों अथवा लक्ष्यों की द्योतक है। पुरुषार्थ चार हैं,--धर्म (सदाचार), अर्थ (अर्थशास्त्र, राजनीति-शास्त्र एवं नागरिक शास्त्र), काम (आनन्दमोग एवं सौन्दर्यशास्त्र), मोक्ष (आत्मा द्वारा अपने वास्तविक स्वभाव की अनुभूति तथा हीन
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