Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

Previous | Next

Page 411
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास (२) उपर्युक्त धारणा से एक महान् सहिष्णुता की उद्भूति हुई । हिन्दू धर्म ने सभी कालों में. विचारस्वातन्त्र्य एवं उपासना - स्वातन्त्र्य की भावनाओं की पूजा की। इस विषय में हमने इस महाग्रन्थ के खण्ड २ मूल पृष्ठ ३८८, पाद-टिप्पणी ६२८ एवं खण्ड ५, मूल पृ० ६७०-७१, १०११-१०१८ में विस्तार के साथ विवेचन उपस्थित किया है। देखिए गीता ( ७।२१ - २२ एवं ६ । २३ ) । संसार में कुछ धर्मों ने स्वधर्म-विरोधियों को, चाहे वे वास्तव में रहे हों या उन पर शंका मात्र रही हो, कितनी यातनाएँ दी हैं, इससे विश्व इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं । हिन्दू धर्म में इस प्रकार की असहिष्णुता का पूर्ण अभाव है । हिन्दू वाद या हिन्दू धर्म किसी स्थिर धार्मिक पक्ष से बँधा नहीं है और न यह किसी एक ग्रन्थ या प्रवर्तक के रूप में किसी पैगम्बर को मानता है । वास्तव में, व्यक्ति को ईश्वर - भीरु होना चाहिए; सत्य विश्वासों की बात अलग है, जो बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, वह है नैतिक आचरण एवं सामाजिक व्यवहार | हिन्दू लोग किसी अन्य धर्म की सत्यता को अस्वीकार नहीं करते और न किसी अन्य व्यक्ति की धार्मिक अनुभूति को ही त्याज्य समझते हैं । एक श्लोक' ऐसा है जो भारतीय धार्मिक विशालता एवं उदारता की ओर सारे संसार का चित्त आकृष्ट करता है और धार्मिक विश्वासों एवं पूजा-उपासना के प्रति सामान्य हिन्दू भावना का द्योतक है। श्लोक का अर्थ यों है :- 'जो हरि त्रैलोक्यनाथ हैं जिनको शैव लोग शिव के रूप में पूजते हैं, वेदान्ती लोग ब्रह्म के रूप में, बौद्ध लोग बुद्ध के रूप में, प्रमाणपटु ( ज्ञान के साधन में प्रवीण या दक्ष ) ( नैयायिक लोग कर्ता के रूप में, जैन शासन में लीन ( जैनधर्म को मानने वाले) लोग अर्हत् के रूप में और मीमांसक लोग कर्म (यज्ञ) के रूप में पूजते हैं, तुम्हें वे वाञ्छित फल प्रदान करें । महान् तर्कशास्त्री उदयन ने भी, जिन्होंने लक्षणावली शक संवत् ६०६ (६८४ ई० ) में लिखी, अपनी न्यायकुसुमाञ्जलि (१८) में वही बात लिखी है । इस प्रकार हम देखते हैं कि सहिष्णुता हिन्दूधर्म का सारतत्व है और अनीश्वरवादी ( नास्तिक ) के साथ भी विनोद ही किया जाता है, न कि उसे किसी प्रकार की यातना दी जाती है । ३६४ ७. बाइबिल सम्बन्धी अर्थात ईसामसीह के धर्मावलम्बियों को असहिष्णुता की जानकारी के लिए देखिए जेरमिह (२६८-६), कोलोसियंस (२१८) एवं गलेशियंस ( ११७ - ६)। ८. यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिका: अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः । । - सुभाषितरत्नभाण्डागार (निर्णयसागर प्रेस संस्करण, १६३५, पू० ५ श्लोक २७ ) न्यायकुसुमाञ्जलि ( १२ ) में इस प्रकार आया है -- स्वर्गापवर्गयोर्मार्ग मामनन्ति मनीषिणः । यदुपास्तिमसावत्र परमात्मा निरूप्यते ॥ इह यद्यपि ये कमपि पुरुषार्थमर्थयमानाः शुद्धबुद्धस्वभाव इत्यौपनिषदाः । आदि विद्वान सिद्ध इति कापिलाः । क्लेशकर्मविपाकाशयैरयामृष्टो निर्माणकायमधिष्ठाय (सम्प्रदाय प्रद्योतकोऽनुग्राहकश्चेति पातञ्जला: लोकवेदविरुद्धेरपि निर्लेपः स्वतन्त्रश्चेति महापाशुपताः । शिव इति शैवाः । पुरुषोत्तम इति वैष्णवाः । पितामह इति पौराणिकाः । यज्ञपुरुष इति याज्ञिकाः । निरावरण इति दिगम्बराः । उपास्यत्वेन देशित इति मीमांसकाः । यावदुक्रुपपन्न इति नैयायिकाः । लोक व्यवहारसिद्ध इति चार्वाकाः । किंबहुना, कारवोऽपि यं विश्वकर्मेत्युपासते । । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452