Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 409
________________ ३६२ धर्मशास्त्र का इतिहास संघर्ष चला करते थे, क्योंकि उदाहरणार्थ मराठों ने बंगाल पर आक्रमण किया था, अत: जब ब्रिटिशों द्वारा मराठे पराजित किये गये तो बंगालियों ने हर्ष मनाया । १६वीं शती के द्वितीय चरण के पूर्व हममें राष्ट्रीयता की भावना नहीं के बराबर थी, हम भारतीयों में भारतीयों के प्रति भावाकुल होने की कोई मानसिक, सामाजिक अथवा राजनीतिक परम्परा नहीं थी । इस अध्याय में हम राजनीतिक तथा अन्य क्षेत्रों में भारत के अध.. पतन के कारणों की जाँच विशद रूप से नहीं कर सकेंगे, किन्तु कुछ बातों की ओर संकेत कर देना विषयान्तर नहीं होगा। हिन्दू धर्म में बहुत-से सिद्धान्तों एवं धार्मिक विचारधाराओं का संगम पाया जाता है, यथा-वैदिक क्रिया-संस्कार, वेदान्तवादी विचार, वैष्णववाद, शैववाद, शक्तिवाद तथा अन्य आद्य सम्प्रदाय, जो बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों की बड़ी-बड़ी विषमताओं के साथ विभिन्न समुदायों एवं विभिन्न प्रकार के मनष्यों की आवश्यकताओं के अनुसार अभिव्यक्ति पाते रहे हैं तथा फूलते-फलते रहे हैं। बहुत ही कम बातों ने हिन्दुओं को एक सत्र में बाँध रखा है, यथा--कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त, विशाल एवं श्रेष्ठ संस्कृत साहित्य, जिसने ऋमशः क्षेत्रीय भाषाओं को समद्ध बना दिया है, धार्मिक विषयों में सभी लोगों द्वारा वेदों में अट विश्वास, यद्यपि बहुत ही कम लोग ऐसे रहे हैं जिन्होंने वेदों का अध्ययन किया अथवा उन्हें समझा, हिमालय से कमारी अन्तरीप तक भोगौलिक एकता, जिस पर पुराणों ने बल दिया है तथा मानसरोवर एवं बदरीनाथ से लेकर रामेश्वर तक तीर्थस्थानों की धार्मिक यात्राएँ । ये तत्त्व सभी हिन्दुओं को एकता के सूत्र में बाँध सकने में उतने समर्थ नहीं हो सके। आचार्यों एवं सन्तों में परलोक की साधना तथा वेदान्तवाद के प्रति अत्यधिक मोह था; उन्होंने लोगों के पारस्परिक कर्तव्यों की ओर, वर्गों तथा समाज के प्रति कर्तव्यों की महत्ता पर उतना या उससे अधिक बल नहीं दिया, जिसका दुःखद परिणाम यह हुआ कि अधिकांश में लोग, चाहे वे योग्य हों या न हों, परलोक साधनारत हो गये और सदाचार के साथ लौकिक कर्तव्यों या मूल्यों के सञ्चयन में सक्रिय न हो सके। एकता के अभाव एवं अधःपतन का एक अन्य कारण था वह विचार-वैषम्य जो इस प्रकार परिलक्षित था--एक ओर तो महान् विचारक इसका उपदेश करते थे कि सम्पूर्ण विश्व एक है और दूसरी ओर समाज में हीन जातियों एवं अस्पृश्य लोगों के प्रति उनका व्यवहार कुछ और ही था, उन्हें छूना अपवित्र कार्य माना जाता था, जो सचमुच एक विचित्र विरोधाभास था-एक ओर वह उच्च आध्यात्मिक विचार कि सम्पूर्ण विश्व एक है और दूसरी ओर समाज का एक विशद अंग अश्पृस्य मान लिया गया! जन समुदाय की शिक्षा के ध्यान का अभाव था तथा उच्च जातियों के लोग इस बात की चिन्ता ही नहीं करते थे कि कौन राज्य कर रहा है, जब तक उनके जीवन की शांति न भंग हो जाय। महान् देशभक्त एवं क्रान्तिकारी सावरकर ने उन सात शृंखलाओं अथवा पाशों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है जिनसे हिन्दु समाज शतियों से बद्ध रहा है, और वे इस प्रकार हैं-(१) अस्पृश्यता; भांति-भाँति के निषेध (वर्जनाएँ), यथा ---(२) समुद्र-यात्रा, (३) सैकड़ों जातियों एवं उपजातियों में पारस्परिक भोजन, (४) अन्तर्जातीय विवाह, (५) कुछ जातियों द्वारा वेदाध्ययन; (६) कुछ विशिष्ट वृत्तियों का निषेध एवं (७) बल, कपट से तथा अबोधता के कारण दुसरे धर्मों में ले लिये गये हिन्दुओं को फिर से हिन्दुओं में मिला लेने का निषेध। हमारे सांस्कृतिक इतिहास की कछ मध्यगत विशेषताएँ एक स्थान पर उल्लिखित की जा सकती हैं। प्रथम बात यह है कि वैदिक काल से लेकर आज तक एक अटूट धार्मिक परम्परा चली आयी है। सभी ब्राह्मणों तथा अधिकांश क्षत्रियों एवं वैश्यों द्वारा धार्मिक क्रिया-संस्कारों एवं उत्सवों में वैदिक मन्त्रों का प्रयोग अब भी किया जा रहा है । वैदिक देवों को हम पूर्णतया नहीं भूल सके हैं। सभी कृत्यों के आरम्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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