Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 407
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास सुन्दर द्वीप अब भी हिन्दू है, उसमें चारों वर्गों के लोग हैं, उनके पुरोहित को पेण्डड (पण्डित) कहा जाता है, पूजा के जल को तोय (देखिए एस लेवी कृत 'संस्कृत टेक्स्ट्स फ्राम बाली') कहा जाता है और पुरोहित अब भी गायत्री का एक चरण 'भर्गो देवस्य धीमहि' कहते हैं और अशुद्ध रूप में यज्ञोपवीत का मन्त्र (यज्ञोपवीतं परमं पवित्रम् . . .) कहते हैं । य संस्कृति एवं सभ्यता का इस प्रकार सैकड़ों शतियों तक चला जाना एक आवर्यजनक बात है। भव हो सका? इसके उत्तर में हमें इस भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता से सम्बन्धित मौलिक विचार-धारणाओं, मल्यों एवं विशेषताओं की व्याख्या करनी होगी, उन पर विचार करना होगा। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व है, उसे केवल हम यूरोपीय मापदण्डों से नहीं जान सकते। तियों में कछ देशों के लोगों को इसका अभिमान एवं गर्व रहा है कि वे अन्य देशों के लोगों से श्रेष्ठ हैं और अपने को प्रचारित एवं प्रसारित करने के लिए उन्होंने अपने को अधिकृत कर लिया । जब ब्रिटिश साम्राज्य अति विशाल हो गया और इतना विस्तृत हो गया कि उसमें सूर्य कभी भी अस्त नहीं होता था तो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने सदम्भ एवं साधिकार ऐसा प्रचार करना आरम्भ किया कि वे अविकसित एवं पिछड़े लोगों के सुधार एवं कल्याण के लिए 'श्वेत मनुष्य का भार' ('ह्वाइट मैस बर्डेन') ढो रहे हैं (जब कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी अपने शासित भारतीयों को उपनिवेशवादी नीतियों के फलस्वरूप चूस रहे थे और उन्हें दरिद्र बना रहे थे)। दूसरी ओर रूस साधिकार गर्जना कर रहा है कि वह जन-साधारण को 'पंजीवाद के शिकजे' से छुड़ायेगा और इस पृथिवी पर ही स्वर्ग उतारेगा । हिटलर से शासित जर्मनों ने ऐसा विश्वास जताया था कि वे श्रेष्ठ नोरडिक जाति के हैं और वे 'साम्यवाद के शिकजे' से संसार की रक्षा करेंगे। इस प्रकार का अभिभाव केवल पश्चिम तक ही सीमित नहीं था। आजकल कुछ भारतीयों ने भी साधिकार घोषणा की है कि आध्यात्मिकता का अस्तित्व केवल यदि कहीं है तो वह भारत में है। निस्सन्देह ऐसा कहना समीचीन ही है कि भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता महान् आध्यात्मिक मूल्यों पर आधत है। किन्तु ऐसा कहना पूर्णतया असत्य है कि अन्य देशों के लोगों में आध्यात्मिकता नहीं पायी जाती । हम इतना ही कह सकते हैं कि हिन्दूवाद के लिए आध्यात्मिकता अपेक्षाकृत अधिक मौलिक रही है और यह हिन्दुओं में अपेक्षाकृत अधिक फैली हुई है और अन्य देशों में इस मात्रा में नहीं पायी जाती। मनुस्मृति में आया है कि केवल वे लोकाचार अथवा प्रयोग (प्रचलित आचार), जो विशेषतः ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र तथा मत्स्य, पञ्चाल एवं शूरसेन देशों के वर्गों एवं जातियों में परम्परानुगत प्रचलित रहे हैं, सदाचार कहे जाते हैं (२।१७-१६) और इन्हीं देशों के ब्राह्मणों से इस पृथिवी के लोगों को अपने कर्तव्यों की धारणा करनी चाहिए अथवा शिक्षा लेनी चाहिए । इस तक के अभिलेख भी दिये हुए हैं); श्री देवे ग्रोसेट कृत 'सिविलिजेशंस आव दि ईस्ट' (फ्रेंच से अनुवाद कथरिन ए. फिलिप्स द्वारा, २४६ चित्र, खण्ड २, भारत, सुदूर भारत एवं मलाया के बारे में, प० १-३४३ तक)। 'भारत पर चीन का ऋण' (चाइनाज़ डेट टु इण्डिया) के लिए देखिए प्रो० लियांग चि चाओ के निबन्ध विश्वभारती क्वार्टरली, खण्ड २, पृ० २५१-२६१, जहाँ ऐसा दिया हुआ है कि आठवीं शती से जो भारतीय विद्वान चीन गये उनकी संख्या चौबीस थी और जो चीनी सन् २६५ ई० से ७६० ई० तक गये उनकी संख्या १८७ थी (जिनमें १०५ नाम निश्चित-से हैं) और देखिएप्रो०पी०सी० बागची कृत 'इण्डिया एण्ड चाइना' (हिन्द किताब्स, १६५०) विशेषतः अध्याय २ एवं ३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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