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हिन्दू संस्कृति एवं सभ्यता की मौलिक एवं मुख्य विशेषताएँ
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का आरम्भ ई० पू० १३७५ से माना है, अधःपतन ई० पू० ७२५ में माना है तथा 'हिन्दू सभ्यता' का आरम्भ ७७५ ई० से माना है तथा अधःपतन १९७५ ई० से । यह मत अत्यन्त आपत्तिजनक है। उन्होंने 'इण्डिक' तथा 'हिन्दू' सभ्यताओं में जो अन्तर बताया है तथा जो तिथियाँ उपस्थित की हैं वे उनकी अपनी इच्छा पर निर्भर हैं, उनके पीछे कोई प्रमाण नहीं हैं। हिन्दू सभ्यता ११७५ ई० में क्यों समाप्त हो गयी, इसका उत्तर नहीं मिल पाता और न यही पता चलता है कि ई० पू० ७२५ एवं ७७५ ई० के मध्य भारतीय सभ्यता का क्या स्वरूप एवं नाम है । दूसरी ओर जन्म लेने, बढ़ने, विवृद्धि या परिपक्वता को प्राप्त होने तथा नाश हो जाने के पीछे जो रूपक है उसे अन्य विद्वान् 'सभ्यताओं' के लिए अनुपयुक्त ठहराते हैं । जे० जी० डे बेडस ने 'फ्यूचर आव दि बेस्ट' ( लण्डन, १६५३ ) में कहा है कि सभ्यताएँ न तो जन्म लेती हैं और न मरती हैं, प्रत्युत वे परिवर्तित होती हैं या समाहित हो जाती हैं ( पृ० ६० ) । और देखिए प्रो० सोरोकिन कृत 'सोशल एण्ड कल्चरल डायनॉमिक्स' ( पृ० ६२७ ), लेयोनार्ड वूल्फ कृत 'क्वैक, क्वैक' ( पृ० १३६ - १६० ) । श्री ए० एल० क्रोयबर ने अपने ग्रन्थ 'स्टाइल एण्ड सिविलिजेशेन' ( न्यूयार्क, १६५७) में प्रो० सोरोकिन से सहमति तथा स्पेंगलर एवं ट्वायन्बी से असहमति प्रकट की है और कहा है-- 'सभ्यताओं का अध्ययन सत्य रूप से वैज्ञानिक या विद्वत्तापूर्ण तब तक नहीं हो सकता जब तक उनमें से संकट, नाश, संहार, विलयन एवं नियति के विषय में हम अपने संवेगात्मक सम्बन्ध को नहीं त्यागेंगे ।
इस विश्व में जितनी संस्कृतियाँ एवं सभ्यताएँ उत्पन्न एवं विकसित हुई उनमें केवल दो ( भारतीय एवं चीनी) ही ऐसी हैं जो पारसीकों (फारस वालों), यूनानियों, सिथियनों, हूणों, तुर्कों के बार-बार के बाह्य आक्रमणों तथा आन्तरिक संघर्षो एवं संसोभों के रहते हुए भी चार सहस्र (यदि और अधिक नहीं) वर्षों से अब तक जीवित रही हैं और अपनी परम्पराएँ अक्षुण्ण रख सकी हैं। भारत ने इन सभी बाह्य आक्रामकों को आत्मसात् कर लिया और बहुत से यूनानियों, शकों एवं अन्य बाह्य लोगों को भारतीय आध्यात्मिक विचारधारा का पोषक बना लिया और उनके लिए भारतीय सामाजिक रचना में एक स्थान निर्धारित कर दिया । ( इस विषय में हम आगे भी लिखेंगे ) । इतना ही नहीं, भारत ने अपने साहित्य, धर्म, कला एवं संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार आक्रमणों अथवा देशों को जीत कर अपने में मिलाकर नहीं किया, प्रत्युत यह कार्य उसने शान्तिप्रिय साधनों द्वारा किया, यथा-- शिक्षा, संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद एवं प्रबोध (संशयच्छेद अथवा शंका निवृत्ति) द्वारा और इस प्रकार श्रीलंका ( सीलोन ), ब्रह्मा (बरमा), सुमात्रा, मलाया, जावा, बाली, बोर्नियो, चीन, तिब्बत, जापान, मंगोलिया एवं कोरिया में अपनी सांस्कृतिक एवं सभ्यता-सम्बन्धी अनुप्रेरणाएँ भर दीं। " बाली का
४. देखिए प्रो० सोरोकिन कृत 'सोशल एण्ड कल्चरल डायनैमिक्स' ( पृ० ६६७) एवं डा० राधाकृष्णन कृत 'रिलिजिन एण्ड सोसाइटी' (१६४७, पृ० १०१ ) ।
५. 'सुदूर भारत' ('फर्दर इण्डिया' एवं 'ग्रेटर इण्डिया') में अर्थात् दक्षिण-पूर्वी एशिया एवं चीन में भारतीय संस्कृति के प्रसार के विषय में एक बड़ा साहित्य उत्पन्न हो गया है और अब भी कतिपय विद्वान् ग्रन्थ एवं निबन्ध लिखते ही जा रहे हैं। कुछ ग्रन्थों एवं निबन्धों के नाम यहाँ उपस्थित किये जा रहे हैं, यथा-- डा० आर० सी० मजूमदार कृत 'ऐंश्येण्ट इण्डियन कॉलोनीज' ( खण्ड १ एवं २); श्री एच० जी० क्वारिछ वेल्स कृत 'टूअर्डस अंगकोर' (जिसमें ४२ चित्र हैं, १६३७) एवं 'मेकिंग आव ग्रेटर इण्डिया' (लण्डन, १६५१, इसमें एक अच्छी ग्रन्थ-सूची भी है); प्रो० के० ए० नीलकान्त शास्त्री कृत 'श्री विजय' (१६४६, जिसमें सन् ६८३ ई० से लगभग १४वीं शती
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