Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 401
________________ ३६४ धर्मशास्त्र का इतिहास महाभारत में आया है कि यदि पाप के प्रतिफल कर्ता के जीवन में नहीं देखे जाते तो वे पुत्रों एवं पौत्रों में अवश्य प्रकट हो होंगे। यह भी अर्थवाद ही है। ___ मनु (८१३१८ वसिष्ठ १६४४५) में ऐसा आया है कि (चोरी ऐसे) पापमय कर्म के लिए राजा द्वारा दण्डित हो जाने पर व्यक्ति पापमुक्त हो जाता है और वह पवित्र हो कर उसी प्रकार स्वर्ग जाता है जिस प्रकार अच्छे कर्म वाले व्यक्ति (राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः । निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा ॥)। कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त का श्राद्ध-सिद्धान्त से मेल बैठाना बड़ा कठिन है । श्राद्ध में श्राद्धकर्ता के तीन पूर्वपुरुषों को पिण्ड दिये जाते हैं । इस विषय में हमने इस महाग्रन्थ के खण्ड ४ (प.० ३३५-३३६) में पढ़ लिया है । पितरों को पिण्डदान देने की प्रथा वेदकालीन है और सम्भवतः वह वेदों से भी प्राचीन है तथा कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त पश्चात्कालीन है । सामान्य लोग श्राद्ध के सिद्धान्त को नहीं छोड़ना चाहते थे और इसी से दोनों का प्रचलन साथ-साथ चलता रहा है। उपनिषदों एवं उनकी टीकाओं, वेदान्तसूत्रों एवं भाष्यों तथा भगवद्गीता के अतिरिक्त कर्म एवं पुनजन्म से सम्बन्धित बहुत ही कम अन्य ग्रन्थ हैं। तुलनात्मक ढंग से पर्याप्त प्राचीन ग्रन्थ है पद्यपाद (सम्भवतः शंकराचार्य के अनन्य शिष्य) कृत विज्ञानदीपिका, जिसमें कुल ७१ श्लोक हैं और जिसका सम्पादन म० म० डा० उमेश मिश्र ने किया है (१६४०) । इस ग्रन्थ में सञ्चीयमान कर्म की तुलना खेत में खड़े अन्नों से की गयी है, सञ्चित कर्म की घर में रखे अन्नों से तथा प्रारब्ध कर्म की तुलना पेट में पड़े अन्नों से की गयी है। पेट में पड़ा भोजन पच जाता है, किन्तु इसमें कुछ समय लगता है । सञ्चित एवं संचीयमान कर्म का नाश सम्यक् ज्ञान से होता है। किन्तु प्रारब्ध कर्म का नाश कुछ काल तक उसके फलों के भोगने के उपरान्त ही होता है। इस पुस्तक ने इस पर बल दिया है कि वैराग्य से ही तत्त्व का सच्चा ज्ञान होता है, वासनाओं का नाश होता है, कर्म तथा पुनर्जन्म की समाप्ति होती है । एक अन्य ग्रन्थ है भट वामदेव कृत जन्म-मरण विचार, जो केवल २५ पृष्ठों में प्रकाशित है। यह कश्मीर के शैव सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। इसमें आया है कि शिव की तीन शक्तियाँ हैं-चित्शक्ति (जो प्रकाश या चेतना के समान है), स्वातन्त्र्य (इच्छा-स्वातन्त्र्य) एवं आनन्दशक्ति। छह कञ्चुक (आवरण या म्यान) हैं-माया, कला, शद्ध विद्या, राग, काल एवं नियन्त्रण । जब शरीर का यन्त्र ट जाता है, तो चेतना प्राणन (साँस) पर अवरोध करके आतिवाहिक (सक्ष्म) शरीर द्वारा दूसरे शरीर में ले जायी जाती है। आतिवाहिक (सूक्ष्म शरीर) मृत शरीर एवं आगामी भौतिक शरीर के बीच एक द्वार या यान का कार्य करता है । इस ग्रन्थ में अन्य बातें भी हैं, जिन्हें स्थानाभाव से हम यहाँ नहीं दे पा रहे हैं । इसमें आया है कि ईश्वर की कृपा से मनुष्य पवित्र होता है तथा दीक्षा एवं अन्य साधनों से वह वास्तविकता का परिज्ञान करता है और शिव के पास पहुंचता है। इसमें ऐसा कथित है कि सभी मनुष्य मुक्ति नहीं पाते, किन्तु वे, जो दीक्षा, मन्दिरों एवं सत्यज्ञान को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, नरक में पड़ते हैं। कर्म के प्रकारों एवं उनके प्रभावों को दूर करने के विषय में बहुत ही कम विवेचन प्रस्तुत किया गया है। ३३. नाधर्मश्चरितो... कृन्तति ॥ पुढेष वा नप्तृषु वा न चेदात्मनि पश्यति । फलत्येव ध्रुवं पापं गुरुमुक्तमिवोदरे ॥ आदि (८०।२-३)। और देखिए शान्तिपर्व (१३६१२२-१३७।१६) : 'पापं कर्म कृतं किञ्चिद्यपि तस्मिन न दृश्यते । नृपते तस्य पुत्रेषु पौत्रेष्वपि च नप्तषु ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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