Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 399
________________ ३२ धर्मशास्त्र का इतिहास आव कर्म' (लण्डन, १६२५) के लेखक हैं, लिखा है कि ईसाई धर्म ने उन बौद्धिक एवं नैतिक समस्याओं का समाधान करने में असफलता व्यक्त की है जिनसे वर्तमान संसार की विषमताओं में रहने वाले लोग ग्रस्त हैं। उन्होंने यह लिखा है कि कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर लिखने के सात वर्ष पूर्व हमने उसका अध्ययन किया था, अत: जो कुछ उन्होंने लिखा है वह उनका व्यक्तिगत वक्तव्य है न कि कर्म पर एक लेख मात्र है (पृ० १२-१३) । जिन्होंने इस सिद्धान्त के विरोध में लिखा है उन्होंने यह स्वीकार करते हुये कि उपनिषद् का यह सिद्धान्त यद्यपि अति प्राचीन है और विश्व में न्याय एवं अन्याय के सम्बन्ध में एक अति गम्भीर विवेचन है, लिखा है कि यह (कर्म-सिद्धान्त) एक दुर्बल एवं कठिनाइयों से परिपूर्ण सिद्धान्त है। यहाँ पर एक प्रश्न किया जा सकता है वे कौन-से धर्म एवं दर्शन-सम्बन्धी सिद्धान्त हैं जो कठिनाइयों से परिपूर्ण नहीं हैं ? हम ईसा के धर्म को उदाहरणस्वरूप ले सकते हैं । जो ईसाई नहीं हैं । (और बहुत से आधुनिक ईसाई भी) उनकी दृष्टि में मौलिक पाप का सिद्धान्त, बिना वपतिस्मा लिये हुए शिशुओं की नरक-दण्ड-सम्बन्धी भावना, पूर्वनिश्चितवाद, जो इस बात पर आधृत है कि ईश्वर सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान स्वर्ग एवं पृथिवी का स्रष्टा है, विचित्र-सा एवं दोषपूर्ण लगेगा। एल०टी० हाबहाउस ने 'मॉरल्स इन इवल्यशन' (भाग २, १६०६) में प्रदर्शित किया है कि किस प्रकार ईश्वर वाले सभी सिद्धान्त विशेषतः ईसाई धर्म, कठिनाइयों से परिपूर्ण हैं । ऐसा कहना कि ईसामसीह का धर्म विलक्षण है, इस धर्म के मानने वाले लोग विशिष्ट हैं । ईश्वर को अन्यायी सिद्ध करना होगा और इसीलिए प्रो० टायनबी (क्रिश्चियानिटी एमंग दि रिलिजियस आव दि वर्ल्ड, आक्सफोर्ड युनि० प्रेस, १६५८) ऐसे लेखकों ने ऐसा सोचना एवं आग्रह करना आरम्भ कर दिया है कि ईसाई धर्म को इस प्रकार के विश्वासों से निर्मुक्त हो जाना चाहिए (पृ० १३ एवं ६५) । कर्म का सिद्धान्त यह बताता है कि एक व्यक्ति के अच्छे या बरे कर्म दूसरे में स्थानान्तरित नहीं हो सकते और न कोई व्यक्ति किसी अन्य के पापों को भोग सकता है। किन्तु ऋग्वेद में ऐसे विश्वास के संकेत हैं कि ईश्वर पिताओं के पापों के कारण उनके पुत्रों को दण्डित कर सकता है । ऋ० (७१८६५) में वसिष्ठ वरुण से प्रार्थना करते हैं-'हम लोगों से हमारे पिताओं के उल्लंघनों को दूर कर दीजिए, और उन सबको भी जो हमने स्वयं अपने शरीर में किये हैं', 'हम लोग अन्य लोगों द्वारा किये गये पापों से दुःखी न हों और न हम लोग वह करें जिसके लिए आप दण्डित करते हैं' (यह विश्वेदेव को सम्बोधित है) । शान्तिपर्व (२७६३१५ एवं २१=२६०।१६ एवं २२, चित्रशाला संस्करण) में आया है-'चार प्रकार से यथा--आँख, मन, वचन एवं कर्म से व्यक्ति जो कुछ करता है , वह वैसा ही फल पाता है । दूसरे द्वारा किये गये अच्छे या बुरे कर्मों के फल को अन्य व्यक्ति नहीं भोगता, व्यक्ति वही पाता है जो स्वयं करता है। और देखिए शान्तिपर्व (१५३।३८ एवं ४१) । इस सिद्धान्त का परिमार्जन बहुत पहले ही हो गया । गौतमधर्मसूत्र (११।६-११) में आया है कि राजा को शास्त्र के अनुकूल वर्णों एवं आश्रमों की रक्षा करनी चाहिए, यदि वे कर्तव्यपालन से विचलित हों तो उन्हें कर्तव्यपालन में सचेष्ट रखना चाहिए क्योंकि राजा को उनके द्वारा किये गये धर्म का अंश प्राप्त होता है । मनु (८१३०४-३०५, ३०८) ने कहा है कि वह राजा, जो प्रजा की रक्षा करता है, प्रजा के आध्यात्मिक पुण्य का छठा भाग पाता है, यदि वह प्रजाजनों की रक्षा नहीं करता तो वह उनके पाप का छठा भाग पाता है। और देखिए मनु (६।३०१)। कालिदास ने शकुन्तला में यही बात कही है । ३० मनु ३०. सर्वतो धर्मषड्भागो राज्ञो भवति रक्षतः । अधर्मादपि षड्भागो भवत्यस्यह्यरक्षतः ॥ मनु (८।३०४); मिलाइए शाकुन्तल (२०१४) 'यदुत्तिष्ठति वर्णेभ्यो नृपाणां क्षयि तत्फलम् । तपाषड्भागमक्षयं वदत्यारण्यका हि नः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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