Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 403
________________ ३६६ धर्मशास्त्र का इतिहास से ई० पू० ६२४ तक के ४८ जीवनों का उल्लेख किया है। जिनमें कुछ के चित्र भी हैं जो पूर्व जीवन से सम्बन्धित हैं । एक अन्य विरोध है, जिसका सम्बन्ध है अनुवांशिकता ( वंशानुक्रम) से | माता-पिता एवं सन्तानों में दैहिक एवं मानसिक समानुरूपता पायी जाती है। इस बात का उत्तर हम कैसे दे सकते हैं ? एक ऐसा उत्तर दिया जा सकता है कि आत्मा, जिसे जन्म लेना रहता है, अपनी स्थिति के अनुकूल माता-पिता की सन्तान होता है । किन्तु बच्चे अपने माता-पिता के सर्वथा अनुरूप नहीं होते । उनमें व्यक्तिगत अन्तर तो पाया जाता ही है । कर्म यह नहीं स्पष्ट कर पाता कि व्यक्ति माता-पिता से क्या प्राप्त करता है, किन्तु वह इतना तो बता पाता है कि व्यक्ति अपने पूर्व जीवन से क्या प्राप्त करता है । एक विरोध यह है कि इस कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त में विश्वास करने से लोग मानवीय दुःख के प्रति निर्मम हो जायेंगे और किसी दुःखित व्यक्ति को सहायता देना नहीं चाहेंगे और सोचेंगे कि दुःख हो पूर्व जन्मों का फल है और दुःखित व्यक्ति को इस प्रकार का दुःख भोगना ही चाहिए। किन्तु वास्तव में. ऐसी नहीं है। अति प्रारम्भिक वैदिक काल से ही लोग दान एवं करुणा-प्रदर्शन के गुणों की प्रशंसा करते रहे हैं। ऋग्वेद (१०।११७१६ ) में आया है -- ' जो व्यक्ति केवल अपने लिए खाना पकाता है और केवल अकेला ही खाता है, वह पाप करता है' (केवलाद्यो भवति केवलादी ) । बृ० उप० (५|२१३ ) ने सभी लोगों के लिए तीन कर्त्तव्य निर्धारित किये हैं-- आत्म-संयम, दान एवं दया । यदि समर्थ व्यक्ति किसी की सहायता नहीं करता है तो वह कर्त्तव्यच्युत कहा जायगा । यह सम्भव है कि दुःख उठाने व्यक्ति के कर्म का फल ही ऐसा रहा हो कि वह सहायता करने वालों की कृपा पायेगा । वाले रही है । प्रश्न उठता एक अन्य विरोध निम्नोक्त है । पृथिवी की जन-संख्या बढ़ती जा 'अतिरिक्त जीव कहाँ से आते जा रहे हैं ? देखिए इस विषय में जे० ई० संजन की पुस्तक 'डोरमा आव रीइन्कारनेशन' ( पृ० ८१ ) एवं बलौट का मत ( ' ट्रांसमाइग्रेशन आव सोल्स' ) । कतिपय प्राणियों की जातियाँ समाप्त हो गयी हैं और बहुत से जीव समाप्त होते जा रहे हैं, यथा- सिंह । जो लोग कर्म-सिद्धान्त में विश्वास करते हैं, ऐसा कह सकते हैं, कि जो जीव पशुओं के रूप में थे अब मानवों के स्वरूप में आ रहे हैं, क्योंकि उनके बुरे कर्म, जिनके फलस्वरूप वे निकृष्ट कोटियों में विचरण कर रहे थे, अब नष्ट हो रहे हैं । कुछ पुराण ऐसा कहते हैं कि जो व्यक्ति अति पापी होता है वह निम्नतर अवस्थाओं को प्राप्त होगा वायुपुराण ( १४ । ३४ - ३७ ) में आया है कि वह पहले पशु होगा, तब हिरण, उसके उपरान्त पक्षी, तब रेंगने वाला कीट और इसके उपरान्त जंगम ( वृक्ष या पाषाण ) । थियोसोफिस्ट तथा आजकल के कुछ अन्य विद्वान ऐसा कहते हैं कि एक बार मनुष्य हो जाने पर प्रत्यावर्तन नहीं होता, अर्थात् प्रतीपगमन ( पीछे लौटना) नहीं होता । किन्तु कठोपनिषद् (५२६ - ७ ) में स्पष्ट आया है कि मृत्यु के उपरान्त कुछ लोग वृक्ष के तने हो जाते हैं और कुछ लोग विभिन्न शरीर रूप धारण करते हैं, और यह सब उनके कर्मों एवं ज्ञान पर निर्भर होता है । और देखिए छा० उप० (५५१० - ७), मनु ( १२२६, १२।६२–६८), याज्ञ ( ३ । २१३ - २१५ = मनु १२।५३ - ५६ ) एवं योगसूत्र ( २।१३ ) । उपर्युक्त सभी प्रमाणों को हम केवल अर्थवाद कहकर छोड़ नहीं सकते, अर्थात् ऐसा नहीं समझ सकते कि वे केवल पापियों को डराने-धमकाने के लिए कहे गये हैं । डा० राधाकृष्णन् (ऐन आइडियलिस्ट व्यू आव लाइफ, सन १६३२ का संस्करण) ने निर्देश दिया है कि यह सम्भव है कि पशुओं के रूप में पुनर्जन्म की बात उन लोगों के विषय में एक लाक्षणिक प्रयोग है जो मानवरूप में पाशविक गुणों वाले होते हैं ( पृ० २६२) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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