Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 382
________________ कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त क्षणभंगुर (अर्थात् शीघ्र ही झकोरों से फट कर जीर्ण-शीर्ण हो जाने वाला है) । देखिए ब्रह्मपुराण (१७८११७६ संसारे... अनित्ये दुःखबहुले कदलीदलसंनिभे)। इस अत्यधिक कर्मवादी सिद्धान्त के कारण आगे चलकर भारतीय जीवन में भाग्यवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित होने लगा और बहुत-से लोग प्रभारी, आलसी एवं कर्मजरू सिद्ध होने लगे। स्वयं सन्तों ने कर्म के सिद्धान्त को बहुत बढ़ावा दिया। सन्त तुकाराम का कथन है कि सुख तो राई के समान है और दुःख पहाड़ है। उपनिषदों में आत्मा के पुनर्जन्म-सम्बन्धी उपर्युक्त विवेचन प्रामाणिक हैं और वे संसारावस्था या व्यवहारावस्था से सम्बन्धित हैं, किन्तु अद्वैत (मुण्डक १।११५-६ की परा विद्या या बृ० उप० २।३।५-६ के अमूर्त ब्रह्म) के सर्वोच्च आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करने पर यह धराशायी हो जाता है, क्योंकि आत्मा परमब्रह्म से अभिन्न है । शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र (२।३।३०) की व्याख्या में इस बात पर बल दिया है । उनका कथन है१५--'जब तक यह आत्मा संसारी है और जब तक यह सम्यक् दर्शन से (पूर्णशान से) संसारिकता से दूर नहीं होता तब तक आत्मा एवं बुद्धि से सम्बन्ध (संयोग) नहीं टूट सकता। जब तक बद्धि के साथ, आत्मा का यह सम्बन्ध चलता रहता है तब तक जीव संसारिकता से लिप्त बना रहता है। किन्तु सत्य तो यह है कि जीव की स्वयं अपनी कोई सत्ता नहीं है, जो है वह केवल बुद्धि की उपाधि से परिकल्पित सम्बन्ध मात्र है। क्योंकि, जब हम वेदान्त के अर्थ के निरूपण में लगते हैं तो हमें उस सर्वज्ञ ईश्वर के अतिरिक्त, जिसका स्वरूप ही नित्य मुक्ति (स्वतन्त्रता) है, कोई अन्य बुद्धिमान् धातु (द्रव्य या पदार्थ) दृष्टिगोचर नहीं होती।' इसके उपरान्त शंकराचार्य ने कुछ वचन उद्धृत किये हैं (यथा-बृ० उप० २४७, ३।७।२३, छा० उप० ६।११६, ६१८७) और कहा है कि इस प्रकार के सैकड़ों वचन हैं । शंकराचार्य का कथन है कि स्वयं बादरायण ने, जो वेदान्तसूत्र के प्रणेता हैं, सर्वोच्च वेदान्तवादी दृष्टिकोण से तथा व्यवहारावस्था (या संसारावस्था) के दृष्टिकोण से कुछ सूत्रों की रचना की है। निम्नोक्त सूत्रों में वेदान्तसूत्रकार बादरायण ने जीव एवं परमात्मा में अन्तर स्पष्ट किया है, यथा-१११११६१७, १।१।२१, २२।२०, ११३१५, २१११२१-२३, २।३।२१, २।३।४१, २।३।४३, आदि। किन्तु १११।३३, २।१।१४ एवं ४।१३ व्यक्त करते हैं कि दोनों (जीवात्मा एवं परमात्मा) में अभिन्नता है।१६ १५. यावदात्मभावित्वाच्च न दोषस्तद्दर्शनात् । वे० सू० (२।३।३०); यावदयमात्मा संसारी भवति यावदस्य सम्यग्दर्शनेन संसारित्वं न निवर्तते तावदस्य बुद्ध या संयोगो न शाम्यति । यावदेव चायं बुद्धयुपाधिसम्बन्धस्तावज्जीवस्य जीवत्वं संसारित्वं च परमार्थस्तस्तु न जीवो नाम बुद्धघुपाधिसम्बन्धपरिकल्पितस्वरूपव्यतिरेकेणास्ति । न हि नित्यमुक्तस्वरूपात्सर्वज्ञादीश्वरादन्यश्चेतनो धातुद्धितीयो वेदान्तार्थनिरूपणायामुपलभ्यते । नान्योतोस्ति द्रष्टा श्रोता मन्ता विज्ञाता (बृ० ३।७।२३), नान्यदतोऽस्ति ब्रष्ट श्रोत मन्तु विज्ञात (छा० ६८७), तत्त्वमसि (छा०, ६।१।६), अहं, ब्रह्मास्मि (बृ० १॥ ७) इत्यादिश्रतिशतेभ्यः ।...अपि च मिथ्याज्ञानपुरःसरोऽयमात्मनो बुद्धयुपाधिसम्बन्धः । न च मिथ्याज्ञानस्व सम्यग्ज्ञानादन्यत्र निवृत्तिरस्तीत्यतो यावद् ब्रह्मात्मतानवबोधस्तावयं बुद्धयुपाधि सम्बन्धो न शाम्यति । शाङकरभाष्य । इसी प्रकार वे० सू० (१।११५ ) पर शाडकरभाष्य का कथन है : 'सत्यं, नेश्वरादन्यः संसारी, तथापि देहादिसंघातोपाधिसम्बन्ध इष्यत एव, घटकरकगिरिगहाधुपाधि सम्बन्ध हव व्योम्नः।' ६. तदनन्यत्वभारम्भशब्दादिभ्यः। वे० स० (२०१४); सूत्रकारोपि परमार्थाभिप्रायेण तदननन्यस्वमित्याह व्यवहाराभिप्रायेण तु स्याल्लोकव दिति महासमुद्र स्थानीयतां ब्रह्मणः कथयति । अप्रत्याख्यायव Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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