Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 387
________________ ३७० धर्मशास्त्र का इतिहास या तत्त्वों को हम कारण माने या उसे जो पुरुष (कहलाता ) है? यह उनके एक साथ मिल जाने का भी परिणाम नहीं है, क्योंकि स्वयं आत्मा को सुख एवं दुःख पर अपना अधिकार नहीं है। तीसरे मन्त्र के उत्तरार्ध में आया है-'वह अकेला ही इन कारणों, अर्थात्-काल, आत्मा आदि पर नियन्त्रण रखता है।' याज्ञ० (१३५०) ने वाञ्छित एवं अवाञ्छित परिणामों के कारणों के प्रश्न के विषय में पाँच मत रखे हैं, यथा --कन्छ लोग देव को, कछ लोग स्वभाव को, कुछ लोग काल को, कुछ लोग पुरुषकार (मानव उद्योग) को तथा कुछ लोग इन सभी के सम्मिलित रूप को कारण मानते हैं। किन्तु याज्ञ० (१।३४६, ३५१) का स्वयं अपना मत है कि अच्छे या बुरे परिणामों के कारण हैं देव एवं पुरुषकार, जिनमें प्रथम तो पूर्व जन्मों (अस्तित्वों) का परिणाम है और अब प्रतिफलित हो रहा है। शान्तिपर्व (२३८।४-५=२३०।४-५ चित्रशाला संस्करण) ने तीन मतों की ओर इंगित किया है, यथा--पुरुषकार या देव या स्वभाव, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है, इसका अपना मत यह है कि देव एवं स्वभाव मिल कर प्रतिफल उपस्थित करते हैं। मत्स्यपुराण (२२१।८) के मत से देव एवं काल मिल कर कर्मों का फल देते हैं। ब्रह्माण्डपूराण (२।८।६१-६२) ने तीन मतों की ओर संकेत किया है, यथा--देव, पुरुषकार एवं स्वभाव, किन्तु उसका अपना मत यह है कि देव एवं पुरुषकार मिलकर कर्मों का फल उपस्थित करते हैं। कर्म को तीन दलों में रखा गया है, यथा--सञ्चित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण (या सञ्चीयमान) । प्रथम कर्म अतीत अस्तित्वों के कर्मों का योगफल है, जिसके प्रतिफलों की अनमति अभी नहीं की जा सकी है। परारब्ध कर्म वह है जो इस वर्तमान जीवन के आरम्भ होने के पूर्व मञ्चित कर्मों में सबसे प्रबल था, और जिसे ऐसा परिकल्पित किया गया है कि उसी के आधार पर वर्तमान जीवन निश्चित होता है। इस वर्तमान जीवन में व्यक्ति जो कुछ संगृहीत करता है वही क्रियमाण (या सञ्चीयमान, एकत्र होता हुआ) कर्म है। आगे आने वाला जीवन (अस्तित्व) सञ्चित एवं क्रियमाण के सम्मिलित कर्मों में अत्यन्त प्रबल (या कर लोगों के मत से सबसे आरम्भिक) कर्म द्वारा निर्धारित एवं निश्चित होता है। कर्म विभिन्न प्रकार के होते हैं और विभिन्न प्रकार के प्रतिफल उपस्थित करते हैं (सात्त्विक कर्मों से स्वर्ग, राजसिक कर्मों से पृथिवी या अन्तरिक्ष तथा तामसिक कर्मों से यातनाओं के स्थल प्राप्त होते हैं)। इसी प्रकार अस्तित्व (जन्म या शरीर) भी विभिन्न होते हैं और शरीर से आत्म है अतः विभिन्न आत्मा नानारूप वाले होते हैं। एक विरोध उपस्थित किया जाता है कि सभी नैतिक मूल्यों का आधार इच्छा-स्वातन्त्र्य है और यदि मनुष्य के अतीत जीवनों के कर्म से वर्तमान जीवन निश्चित होता है तो वर्तमान जीवन केवल कर्म की शक्ति के हाथ में एक खिलौना मात्र है और व्यक्ति के लिए इतनी छूट नहीं रहती कि वह वही कर सके जिसे वह सर्वोत्तम समझता है। मनष्य के इच्छा-स्वातन्त्र्य का प्रश्न अत्यन्त पेचीदा है और इस पर प्राचीन काल से ही महान चिन्तकों ने सोचा-विचारा है और विभिन्न मत प्रकाशित किये हैं और आज तक हमें कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल सका है। इस विषय में पाटक कछ ग्रन्थों का अवलोकन कर सकते हैं, यथा-- रैशडल कृत 'थ्योरी आव गड एण्ड इविल' (जिल्द २, प०३०२-३५५, सन् १६०७), वर्गसाँ कृत 'टाइम एण्ड फ्री २०. देखिए पद्मपाद की विज्ञानदीपिका (श्लोक ५ एवं ८), 'कर्मणा फलवैचित्र्याद्वैचित्र्यं जन्मनामिह । देहवैचित्र्यतो जीवे वैचित्र्यं भासते तथा ॥ संञ्चितं चीयमानं च प्रारब्धं कर्म तत्फलम् । क्रमेणावृत्तिरेतेषां पूर्व बलवतोऽपिवा' ॥ टीका में आया है : 'सञ्चितानां शुभाशुभकर्मणां मध्ये यस्य पूर्वकालिकत्वं तस्य पूर्व प्रारम्भः। तत्समाप्तौ तदनन्तरजातस्थैवं वा क्रमेणामावृत्तिः । अपि च सञ्चितकर्मर्णा मध्ये पौर्वापर्यमनपेक्ष्य यस्य कर्मणो बलवत्तरत्वं तस्यैव पूर्व प्रारम्भः । Jain Education International Jain Education International For Private & Personal use only. www.jainelibrary.org

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