Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

Previous | Next

Page 391
________________ ૭૪ धर्मशास्त्र का इतिहास या लौकिक अग्नि है । छा० उप० (५।१८।२ ) ने निष्कर्ष निकाला है ( ५।१६ - २४ ) और उसे पाँच प्राणों की आहुतियों (प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा.. ) की पंक्ति में रखा है । वे० सू० ( ११२।२४-३२ ) में भी इसकी चर्चा है और यही निष्कर्ष है कि इसका अर्थ है परमात्मा, न कि जीवात्मा या अग्नि ( एक तत्त्व के रूप में) या जठरानल | उप० २।१) कही है । गार्ग्य बालाकि राजा ने इस बात के लिए एक सहस्र (अर्थात् जनक ही दाता तथा ब्रह्म की इसके उपरान्त ड्यूशन महोदय ने गार्ग्य बालाकि की गाथा ( बृ० ने काशी के राजा अजातशत्रु को ब्रह्म की व्याख्या सुनानी चाही और गौएँ देने की बात कही और यह भी कहा कि लोग 'जनक, जनक' व्याख्या सुनने वाले हैं) का उद्घोष कर दौड़ते हैं । बालाकि ने ब्रह्मध्यान के लिए बारह पदार्थों की चर्चा की, किन्तु राजा ने उत्तर दिया कि मैं यह सब पहले से ही जानता हूँ और यह भी कहा कि ब्रह्म इन पदार्थो से भिन्न है और उसे आपके ( अर्थात् बालाकि के ) कहने के अनुसार समझा नहीं जा सकता । इस पर बालाकि मौन रह गये और शिष्य हो जाना चाहा। तब आजातशत्रु ने कहा- यह तो प्रतिलोम है कि ब्राह्मण ब्रह्मज्ञानर्थ क्षत्रिय के पास शिष्य होने के लिए जाय । ऐसा कह कर राजा ने बालाकि का हाथ पकड़ लिया और अपने आसन से उठ पड़े । इस गाथा की कुछ बातें द्रष्टव्य हैं। इससे यह नहीं प्रकट होता कि ब्राह्मण जाति ब्रह्मविद्या को नहीं जानती थी और न यही व्यक्त होता कि इसका ज्ञान केवल क्षत्रियों को ही था दूसरी ओर जनक का विशिष्ट उल्लेख हुआ है कि वे गौओं के दाता हैं और ब्रह्मविद्या को सुनने के लिए तत्पर रहते हैं तथा लोग उनसे गौएँ प्राप्त करने एवं ब्रह्मविद्या का ज्ञान देने के लिए उनके यहाँ जाया करते हैं । हमें बृ० उप० (३।१) से विदित है कि विदेह के राजा जनक ने एक सहस्र गौएँ दी थी और जब याज्ञवल्क्य ने उनको ले लिया तो राजा जनक की सभा में बैठे कतिपय लोगों यथा अश्वल ( राजा के होता पुरोहित), आर्तभाग, गार्गी, उद्दालक आणि विदग्ध शाकल्य ने उनसे कई प्रश्न पूछे । और देखिए बृ० उ० (४|४| ७- - जनक ने याज्ञवल्क्य को एक सहस्र गायें दी हैं ) ४/४/२३ - - जनक याज्ञवल्क्य को विदेह का राज्य तथा अपने को दास के रूप में देते हैं । अतः बालाकि की गाथा से यदि कोई बात व्यक्त की जा सकती है। तो वह यह है कि जनक ऐसे क्षत्रिय ने ब्रह्मविद्या की शिक्षा ग्रहण कर ली थी किन्तु बालाकि को जो ब्राह्मण था, इसका ज्ञान न था ( यद्यपि उसने ऐसा कह रखा था कि मुझे यह ज्ञात है) और उसको काशी के राजा अजातशत्रु से इसका ज्ञान प्राप्त हुआ तथा अजातशत्रु ने ऐसा कहा कि ब्राह्मण क्षत्रिय का शिष्य नहीं होता । सभी ब्राह्मण ब्रह्मविद्या में निष्णात नहीं हो सकते थे, क्षत्रियों की तो बात ही दूसरी है (अर्थात् उनमें तो इने-गिने ही ब्रह्मविद हो सकते थे) । अतः ड्यूशन महोदय त्रुटिपूर्ण सामान्यीकरण करने ( व्यापक सिद्धान्त बनाने) के अपराधी हैं । यह द्रष्टव्य है कि इस कथा में काशी के राजा अजातशत्रु ऐसा नहीं कहते कि यह विद्या पहले ब्राह्मणों को नहीं ज्ञात थी (जैसा कि प्रवाहण जैवलि ने कहा था ), प्रत्युत उन्होंने आश्चर्य प्रकट किया कि एक ब्राह्मण उनके पास यह विद्या ग्रहण करने को आया है । यही कथानक कौषीतकि उप० (४।१-१६ ) में उन्हीं शब्दों में आया है । यहाँ बालाकि ने अपने ध्यान के विषयों के बारे में १६ व्याख्याएँ की हैं । और देखिए वे० सू० (१।४।१६-१८ ) । बृ० उप० (२1१ ) एवं कौ० उप० ( ४ ) में पुनर्जन्म के विषय में कुछ नहीं है, इन दोनों उक्तियों में केवल इतना ही व्यक्त है कि आत्मा से सभी प्राण, सभी लोक, सभी देव एवं सभी तत्त्व निष्पन्न होते हैं (बृ० उप० २।२।२० ) | यह वैसा ही है जैसा कि ब० उप० (४।४।७) एवं छा० उप० (४।१-१६) में आया है ( ऐतदात्म्यम् इदं सर्व.... तत्त्वमसि ) | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452