Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 386
________________ कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त चारों में केवल योगी के कर्म शुक्ल होते हैं, क्योंकि वह कर्मों के फलों का त्याग किये रहता है और वह अकृष्ण कर्म करता है, अर्थात् बुरे कर्म करता ही नहीं। 'योगसूत्र (२०१३) के भाष्य ने चार प्रश्न उठाये हैं, यथा-(१) क्या एक कर्म एक जन्म का कारण होता है ?, या (२) क्या एक कर्म कई जन्मों का कारण होता है ?, (३) क्या एक से अधिक कर्म रोएक से अधिक जन्म होते हैं ?, (४) क्या एक से अधिक कर्म से एक जन्म होता है ? भाष्यकार ने प्रथम तीन प्रश्नों का विरोध किया है और चौथे को स्वीकार किया है, अर्थात् कई कर्मों से एक जन्म होता है। शान्तिगर्व (२०३१३३-३४-२८० । ३३-३४ चित्रशाला संस्करण) ने आत्मा के छह रंग बताये हैं, यथाकृष्ण, धुम्र, नील, रयत, पोत, एवं शक्ल और इन्हें एक-दूसरे के ऊपर रखा है, यथा कृष्ण को सबसे बरा कहा है और गाय को सर्वोत्तम । ग्लो३६-४६ में इन प्रकारों का विस्तृत उल्लेख है। हमारे वर्तमान जीवन की कतिपय समस्याओं पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त से प्रकाश पड़ता है। सर्वथा अनजान दोव्यामिताभी दुरारे से मिलते हैं तो उनमें मित्रता एवं वैर की भावना क्यों उमड़ पड़ती है? एक कल्पना की जा सकती है कि राम्भवत: पूर्व जीवन में वे एक-दूसरे के मित्र या वैरी रहे हैं। विश्व में देखने में आता है कि कुछ लोग बिना किसी योग्यता के आनन्दोपभोग करते हैं और कुछ ऐसे लोग, जो सभी प्रकारों से योग्य हैं, अथवा जिन्हान त्याग एवं तपस्या का जीवन बिताया है, बड़े कष्ट में रहते हैं। इस दशा पर कर्म एवं पुनर्जन्म का प्रभूत प्रकाश डालता है । हम विश्व में छायी विषमता को देखकर विकल हो उटते हैं, इतना ही नहीं, हमारी न्यायप्रिय भावना एवं सुन्दर व्यवहार करने की क्षमता पर धक्का पहुँच सकता है, किन्तु जब हम इस सिद्धान्त पर मनन करते हैं तो सन्तोष मिल जाता है। इस अनुमान एवं विश्वास से कि सभी मानवीय प्रयत्नों एवं आचरणों का उचित फल एवं दण्ड प्राप्त होगा, हमारे वर्तमान जीवन को महत्त्वपूर्ण गुरुता प्राप्त हो जाती है और हम इस जीवन में मनन गवा करने के ठिानप्राणिमहोते हैं और कर्मो, अत्याचारों एवं पापमय जीवन से दूर रहने का प्रयत्न करते हैं। मानवों में देखे जाने वाले सन-ख-गवन्धी वैषम्य पर तो यह सिद्धान्त प्रकाश डालता ही है, साथही-नाथ हा गर भौतिक कल्याण एवं अस्वस्थ शारीरिक दशाओं की पारस्परिक विभिन्नताओं को भी समझने में समर्थ हो जाते हैं। आज के निम्न में अगरवृत्तियों का राज्य क्यों है? इस भयंकर एवं महान प्रश्न पर भी हमें कर्म एवं पनर्जन्म के सिद्धान्त से प्रकाश प्राप्त होता है। कुछ लोगों में जो विलक्षण बुद्धि, योग्यता एवं समर्थता देखने में आती है जिसके फलस्वरूप ये गणित, विज्ञान, संगीत तथा अन्य ललित कलाओं में विशेष योग्यता प्रदर्शित कर संसार को चकित कर देते हैं, उराके मूल में क्या है ? सम्भवतः कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त से इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर प्रकाश पडता है। यदि सम्यक ढंग से विचार किया जाय तो यह सिद्धान्त निराशावादी या भाग्यवादी नहीं है. प्रत्यत यह इस जीवन में पूर्ण रूप से मानवीय उद्योग करने पर बल देता है। हम देखेंगे कि कितने धर्मशास्त्र-ग्रन्थ या उनने सम्बन्धित ग्रन्थ एवं विचार पुरुषकार (उद्योग) पर बल देते हैं और कुछ लोगों द्वारा प्रतिपादित दैव या स्वभाव या काल (समय) या इन सभी के सम्मिश्रण से सम्बन्धित विचारों (यथा--इसी जीवन में कर्मों के फल मिलते हैं) के विरोध में मत प्रकाशित करते हैं। कभी-कभी एक बहुत दरिद्र व्यक्ति राजा हो जाता है और अपनी प्रतिभा एवं योग्यता से लोगों को चकित कर देता है। यह सब क्या है ? कुछ लोग राई से पर्वत हो जाते हैं और कछ लोग पर्वत से राई । सम्भवतः इन सब के मूल में पूर्व जन्म के कर्म एवं संस्कार हैं। विश्व के उद्गम एवं अन्य समान समस्याओं के विषय में उपनिषदकाल से ही कतिपय मत प्रकाशित होते रहे हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् (१।१) में प्रश्न आये हैं-'क्या ब्रह्म ही कारण है ? हम कहाँ से जन्म लेते हैं ? किसके द्वारा हम जीवित रहते हैं ? हम कहाँ जा रहे हैं ?, हे ब्रह्मविद्, हमें बताओ, किसके नियन्त्रण के भीतर हम सुख या दुःख की अनुभूति करते हैं ?' आगे के पद्य में आया है-'क्या काल या स्वभाव या आवश्यकता या संयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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