Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 380
________________ कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त शरीर से दूसरे शरीर में जाता हुआ सूक्ष्म तत्त्वों (भूतसूक्ष्म) के साथ अथवा उनसे घिरा हुआ चलता है; छा० उप० (५।६।१) में उल्लिखित आहुतियों की चर्चा 'आप:' के रूप में हुई है, क्योंकि मानव-शरीर अन्नरस, रक्त आदि के रूप में द्रव पदार्थों से परिपूर्ण है; क्योंकि अग्निहोत्र आदि पवित्र कृत्य मृत्यु के उपरान्त नये शरीर के कारण बनते हैं और उन कृत्यों में जो मुख्य पदार्थ (यथा-सोम रस, घृत, दुग्ध) प्रयुक्त होते हैं वे सभी मुख्यतः द्रव ही हैं। उस उक्ति या वक्तव्य में कि “जो यज्ञादि करते हैं वे पितृयाण मार्ग से चन्द्रलोक जाते हैं और श्राद्ध एक हव्य के रूप में अर्पित होता है जिसमें से सोम, जो देवों का भोजन है, निकलता है', 'देवों का भोजन' नामक शब्द लाक्षणिक रूप में प्रयुक्त हए हैं (न कि साक्षात् भोजन करने के अर्थ में) । यज्ञ, जन-कल्याण कर्म, दान, आदि करने वालों का आत्मा चन्द्र के पास पहुँचने एवं अपने सत्कर्मी के फलों (जो चन्द्र में अर्थात् चन्द्रलोक में ही भोगे जा सकते हैं) को भोगने के उपरान्त उसी मार्ग से लौटता है, जिस मार्ग से गया था, किन्तु विश्राम-स्थल यहाँ उलटे पड़ जाते हैं, जिससे कर्मों के फल, जो केवल इस पृथिवी पर ही भोगे जा सकते हैं, भोगे जा सकें ।'२ इस दृष्टिकोण के अन्तर्गत दो बातें हैं- (१) इस जीवन से ऊपर एक जीवन (जिसकी ओर ऋग्वेद में बहुधा निर्देश मिलता है) तथा पुनजन्म। इतना ही नहीं, इस दृष्टिकोण से अच्छे कर्मों के फलस्वरूप दो परिणाम भी प्रकट होते हैं--स्वर्ग के भोग तथा पुनः भौतिक साधनों एवं सांस्कृतिक वातावरणों से युक्त पुनर्जन्म की स्थिति, जैसा हम गौतमधर्मसूत्र (१११२६) एवं गीता (६।३७-४५) में पाते हैं । इसी के साथ यह भी जान लेना है कि दुष्कर्मों के लिए दो दण्ड हैं, नरक की यातनाएँ और उनके उपरान्त घणित निम्न स्तर का जीवन । वे० स० (३।१।१३-१७) ने आगे व्याख्या की है कि सभी मनुष्य चन्द्रलोक नहीं जाते, किन्तु केवल वे ही लोग जाते हैं, जो यज्ञ आदि करते हैं, जो लोग यज्ञों या जन-कल्याण के कार्यों को नहीं सम्पादित करते, वे दुष्कर्मों के दोषी हैं और नरक (जो वे० स० ३।१।१५ के मत से सात हैं) की यातनाओं को भोगने के लिए यमलोक जाते हैं और उसके उपरान्त इस पथिवी पर लौट आते हैं। जो श्रद्धा एवं तप के मार्ग का अनुसरण करते हैं वे देवयान मार्ग (छा० उप० ॥१०॥१एवं मण्डक उप० शरा११) से जाते हैं. और जो यज्ञ. दान कर्मों का सम्पादन करते हैं वे पितयाण मार्ग (छा० उप०५।१०।३ एवं मुण्डक उप०१२।१०) से जाते हैं, और जो इन दोनों में किसी भी मार्ग का अनसरण नहीं करते वे तीसरे स्थल को जाते हैं और कीटों, पतंगों आदि के रूप में जन्म लेते हैं (छा० उप० ॥१०१८)। कौषीतकि उप० के (१२) जैसे श्रतिवचन में जो यह आया है कि जो यहाँ से प्रस्थान करते हैं वे सभी चन्द्रलोक जाते हैं, उसमें 'वे सभी' शब्द उनके लिए प्रयुक्त हैं जिन्हें चन्द्र के यहाँ जाने का अधिकार.(योग्यता या समर्थता ) है। एक शब्द है 'संसार', जो वेदान्त एवं धर्म शास्त्र सम्बन्धी पश्चात्कालीन ग्रन्थों में बहधा किन्तु उपनिषदों में बहुत कम प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ है 'जन्मों एवं मृत्युओं के चक्र में आना-जाना'। कठोपनिषद् (३७) में आया है-'जो व्यक्ति अविज्ञानवान् (बिना समझ का) है, अमनस्क (मन को संयमित नहीं रखता है) है, जो सदा अशुचि (अशुद्ध या अपवित्र) है, उसे वह सर्वोच्च-पद नहीं प्राप्त होता और संसार (जन्म एवं मरण) में आता १२. कृतात्ययेऽनुशयवान दृष्टस्मृतिभ्यां यर्थतमनेवं च। वे० सू० (३।१८) । शङकराचार्य ने 'अनुशय' शब्द का अर्थ बताया है : 'आमुष्मिकफले कर्मजाते उपभुक्तेऽवशिष्टमैहिकफलं कर्मान्तरजातमनुशयस्तद्वन्तोऽयरोहन्तीति ।' 'अनुशय' का यहाँ पर अर्थ है 'अवशेष, बचा हुआ'। मिलाइये मेघदूत (३०): 'स्वल्पीभते सचरितफले स्वगिणां गां गतानां शेषैः पुण्यह तमिव दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम् ॥' यह वेदान्त सूत्र (३१) के सिद्धान्त पर आधृत एक बहुत ही सुन्दर उत्प्रेक्षा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,

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