Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

Previous | Next

Page 381
________________ धर्मशास्त्र को इतिहास जाता (गुजरता) है ।१३ श्वेताश्वतरोपनिषद् ( ६।१६ ) ने परमात्मा के विषय में यों लिखा है-'वह विश्व की रचना करने वाला, विश्व को जानने वाला, आत्मयोनि (स्वयं जन्म लेने वाला), ज्ञाता, कालकाल (काल को नष्ट करने वाला); सभी गुणों से युक्त, सर्वविद्य (सर्वज्ञ), प्रधान तथा क्षेत्रों (व्यक्तिगत आत्माओं) एवं गुणों (सत्त्व, रज, तम) का स्वामी है और संसार से मोक्ष देने, उसकी स्थिति एवं बन्धन का हेतु (कारण) है।' मंत्रायणी उपनिषद (१) का कथन है-'जब संसार का ऐसा स्वरूप है तो (आनन्दों के) भोग से क्या लाभ ?' मुक्तिका उपनिषर (२१३७) का कथन है-'मन संसार रूपी वृक्ष की जड़ के रूप में अवस्थित है।' 'संसार' शब्द वे० स० (४।२।८) में भी भाया है। पीता ने इसका प्रयोग कई बार किया है (यथा-६।३, १२७ आदि)। मनुस्मृति ने भी 'संसार' शब्द का प्रयोग कई बार किया है (यथा-११११७ में तथा कई बार १२ वें अध्याय में) । सत, रज एवं तम नामक तीन गुणों की विशेषताओं का वर्णन करने (मनु० १२।२६-२६) तथा उनके प्रभावों पर प्रकाश डालने (मनु० १२।३०।३८) के उपरान्त मनु ने कहा है कि जिनमें सत्त्व, रज एवं तम की प्रधानता होती है वे क्रम से देव, मानव एवं निम्न श्रेणी के जीव होते हैं। मनु ने पुनः लोगों को नीच, मध्यम एवं उत्तम श्रेणियों में बांटा है (१२।४०-५०) । मनु ने 'संसार' को बहुवचन में (१२॥५२, ५४, ७०) तथा 'गति' या 'योनि' के अर्थ में प्रयुक्त किया है। विशेष रूप से देखिए मनु (६१४०-६०) जहाँ संसार का उल्लेख है, संन्यास धर्म की चर्चा है, नरक-यातनाओं, रोगों, व्याधियों नादि का वर्णन है। श्री संजन महोदय ने अपने ग्रन्थ 'डॉग्मा आव रीइन्कारनेशन' के प०१० पर कहा है कि मनु के अनुसार प्रत्येक जीव दस सहस्र लक्षों की संख्या में अस्तित्व ग्रहण करता है। किन्तु यह उक्ति पूर्णतया प्रामक एवं त्रुटिपूर्ण है। मनु का इतना ही कहना है कि मोक्ष के लिए इच्छुक संन्यासी को इस सम्भावना पर सोचना चाहिए कि कुछ मात्मा लाखों जन्मों में परिभ्रमण कर सकते हैं। याज्ञ० (३।१६६)ने जन्मों के घेरे में आने-जाने के नर्थ में 'संसरति' क्रिया का प्रयोग किया है और कहा है-'कुछ लोगों द्वारा किये गये कर्मों का विपाक मृत्यु के उपरान्त ही उत्पन्न होता है (अर्थात् अन्य शरीरों में) या इसी जीवन में होता है (यथा कारीरी यज्ञ के विषय में) तथा कुछ लोगों के विषय में इस लोक में या परलोक में (अर्थात् यह कोई शास्त्रीय नियम नहीं है कि कर्मों का विपाक या फल उनके सम्पादन के उपरान्त शीघ्र ही प्रतिफलित हो जाता है)। याज्ञ० (३।१३३, १६२) में एक सुन्दर पक आया है--जिस प्रकार एक अभिनेता विभिन्न अभिनय करने के लिए विभिन्न रंगों का प्रयोग करता है उसी प्रकार यह आत्मा विभिन्न कर्मों के अनुसार विभिन्न रूपों (छोटा, कुबड़ा आदि) एवं शरीरों को धारण करता है । '४ याज्ञ० ( ३।१४० ) में स्वयं 'संसार' शब्द प्रयुक्त हुआ है। शान्तिपर्व (२०५।६; चित्रशाला संस्करण =१६८।११-१२) में आया है--'इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस जीवन में सुख से कहीं अधिक दुःख है।' पुराण बहुधा कहते हैं कि संसार अनित्य है, दुःखों एवं चिंताओं से परिपूर्ण है और केला के पातों के समान १३. यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्क सदाऽशुचि । न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥ कठोपनिषद (३७); 'तत्पदं' का संकेत कठो० (२।१५-१६) की ओर है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में आया है: 'स विश्वकृद्विश्वविदात्मयोनिर्जः कालकालोगुणी सर्वविद्यः । प्रधान क्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः संसारमोक्षस्थितिबन्ध हेतुः (६।१६)। १४. विपाकः कर्मणां प्रेत्य केषांचिदिह जायते । इह वामुत्र वैकेषां भावस्तत्र प्रयोजनम् ॥ यथा हि भरतो वर्णवर्णयत्यात्मनस्तनुम् । नानारूपाणि कुर्वाणस्तथात्मा कर्मजारस्तनूः ॥याज्ञ० (३॥१३३, १६२)। 'नानारूपाणि कुर्वाणः को हम 'भरतः' के साथ भी ले सकते हैं। 'भरत' का अर्थ है अभिनेता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452