Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 378
________________ कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त ३६१ प्रथम है अग्नि, प्रकाश ( ज्योति ), दिन मास का शुक्ल पक्ष एवं सूर्य का उत्तरायण मार्ग; वे लोग, जिन्होंने ब्रह्म की अनुभूति कर ली है, इस लोक से जाते समय ब्रह्मलोक की यात्रा करते हैं । दूसरा मार्ग है धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष, सूर्य के ६ मासों का दक्षिणायन मार्ग; योगी उस मार्ग से चन्द्र- प्रकाश को प्राप्त कर पुनः इस लोक में लौट आता है । शान्तिपर्व ( २६।८ - १०, चित्रशाला संस्करण) ने उत्तरायण एवं दक्षिणायन मार्गों का उल्लेख किया है, जिनमें दूसरे की उपलब्धि दानों, वेदाध्ययन एवं यज्ञों से होती है (जैसा वृ० उ०६ |२| १६ एवं छा० उ० ५ १०1८ में वर्णित है ) । याज्ञवल्क्यस्मृति ( ३।१६७ ) ने भी इन मार्गो की ओर इंगित किया है, और देखिए याज्ञ० ( ३।१६५ - १६६ ) । वेदान्त सूत्र ने बहुधा पुनर्जन्म के सिद्धान्त की ओर संकेत किया है, किन्तु स्थानाभाव से हम सभी बातों का उल्लेख नहीं कर सकते। थोड़े ही सूत्रों की व्याख्या यहाँ उपस्थित की जायगी । वे० सू० के तीन सूत्र ( २।१।३४-३६) १ 10 पुनर्जन्म के सिद्धान्त के विषय में बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। विरोधी कहता है- 'यह कहना कि ईश्वर संसार का कारण है, युक्तिसंगत नहीं जँचता, क्योंकि यदि ऐसा है तो ईश्वर पर व्यवहार वैषम्य एवं अत्याचार का अभियोग लग जायेगा । वे कुछ ऐसे लोगों को उत्पन्न करते हैं जो ( देवों आदि की भाँति ) अत्यन्त आनन्द का उपभोग करते हैं । कुछ ऐसे लोगों को उत्पन्न करते हैं जो ( अत्यन्त क्लेशयुक्त जीवन बिताते हैं तथा कुछ ऐसे लोगों को उत्पन्न करते हैं जो हैं अर्थात् आनन्द का अल्पांश मात्र पाते हैं । अतः ईश्वर पर ऐसा अभियोग लगाया जा सकता है कि वे द्वेष एवं प्रेम की भावनाओं से ( सामान्य लोगों की भाँति ) परिपूर्ण हैं । ईश्वर भी क्लेश उत्पन्न करता है। और अन्त में सब को नष्ट कर देता है। इस प्रकार का बड़ा अत्याचार दुष्ट लोगों की दृष्टि में भी घृणास्पद है।' इस पर उत्तर यों है - 'यदि ईश्वर ने संसार में वैषम्य की रचना केवल अपने मन से की होती तथा किसी अन्य बात पर विचार न किया होता तो निस्सन्देह उन पर असमान व्यवहार एवं अत्याचार के दो अभियोग लगाये जाते । किन्तु ईश्वर ने सदाचार नामक वृत्ति को भी दृष्टि में रखा है। ईश्वर की स्थिति को हम वर्षा की स्थिति से तुलना करके देखें । वर्षा समान रूप से खेत पर होती है किन्तु अंकुर समान रूप से नहीं निकलते, कोई छोटा होता है, कोई बड़ा, कोई उत्तम होता है, कोई निकृष्ट, यह सब बीज की विशेषता पर निर्भर होता है । ईश्वर पशुओं, मनुष्यों एवं देवों की रचना का एक मात्र कारण जो विषमता दृष्टिगोचर हो रही है वह है विभिन्न जीवों की अपनी-अपनी विशिष्ट वृत्तियाँ एवं शक्तियाँ ।' कर्म एवं पुनर्जन्म के विषय में अति प्राचीन काल से ही लोगों का मन प्रभावित था । आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २।१।२।२-३, ५-६ ) में आया है - 'विभिन्न वर्गों के लोग अपने व्यवस्थित कर्तव्यों के सम्पादन से सर्वोच्च एवं अपरिमित सुख का भोग करते हैं । ( स्वर्ग में सुख भोगने के उपरान्त ) कर्मफल शेष होने के कारण वे लौट आते हैं और यथोचित जाति (या कुल), रूप, वर्ण, बल, बुद्धि, प्रज्ञा, सम्पत्ति के साथ जन्म लेते हैं, धर्मानुष्ठान ( कर्तव्य पालन) का लाभ उठाते हैं और यह सब आनन्द में परिणत होता है जो चक्र के समान दोनों लोकों में होता है । यही नियम दुष्कृत्य करने पर भी लागू होता है । सोने का चोर एवं ब्रह्महत्यारा अपनी १०. वैषम्यनै घृष्ये न सापेक्षत्वात् तथाहि दर्शयति । न कर्माविभागादिति चेन्नानादित्वात् । उपपद्यते चाप्युपलभ्यते च । वे० सू० (२।१।३४-३६ ) | ४६ Jain Education International मारवाही पशुओं की भाँति ) बीच की स्थिति प्राप्त करते For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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