________________
कर्म एवं पुनर्जन्म का सिदान्त
है जोनीचे है और उसमें छः तीलियाँ हैं अर्थात् दक्षिणायन के ६मास हैं) डयूशन (फिलॉसॉफी भाव दि उपनिषद्स, पृ० ३३८) ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ऋ० (१३१६४।१२) का दो मार्गों से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह द्रष्टव्य है कि ऋग्वेद के इस मन्त्र के पूर्व (१।१६४।११) ऋत (वर्ष या सूर्य) के पहिये को द्वादशार (१२ अरों या तीलियों वाला या १२ महीनों वाला) कहा गया है, अतः जब षडरे (छह अरों या तीलियों वाला) का उल्लेख ऋ० (१।१६४।१२) में हुआ है तो यह ६ महीनों का द्योतक हो सकता है ।
कौषीतकि उप० (१।२-३) ने देवयान एवं पितृयाण का उल्लेख तो किया है किन्तु कीड़ों-मकोड़ों, पक्षियों आदि के तीसरे स्थल का नहीं, प्रत्युत ऐसा कहा है कि कीड़े-मकोड़े आदि उसी मार्ग से लौटते हैं जिस मार्ग से मनुष्य । बृह० उप० एवं छा० उ० ने चन्द्रलोक को ऐसा स्थल माना है जहाँ से दो मार्ग पृथक-पृथक हो जाते हैं, किन्तु कौषीतकि उप० ने अपने उल्लेख में देवयान के मार्ग के विश्राम-स्थलों (स्टेशनों) को पितयाण-मार्ग के प्रतिलोमों के रूप में रख दिया है। कौषीतकि उप० ने चन्द्र तक के सभी आरम्भिक विश्राम-स्थलों को छोड़ दिया है और सभी पुनर्जन्म लेते हुए जीवों का चन्द्र तक जाना कहा है। अन्य अन्तर भी हैं, जिन्हें हम यहाँ नहीं दे रहे हैं।
युशन महोदय (फिलॉसॉफी आव दि उपनिषदा, पृ० ३१८) ने लिखा है कि ऋग्वंद (१०1८८।१५) में उल्लिखित दो मार्ग दिन एवं रात्रि के द्योतक है, किन्तु बात वास्तव में ऐसी नहीं है। पितृयाण मार्ग का उल्लेख ऋ० (१०।२।७) में हुआ है (अग्नि पितृवाण मार्ग को भली-भांति जानती है), और भी 'हे मत्य, अन्य मार्ग से जाओ, जो तुम्हारा है और देवयान से भिन्न है' (ऋ० १०।१८११)। ये दोनों मंत्र स्पष्ट रूप से सिद्ध करते हैं कि ऋग्वेदीय ऋषियों को देवयान एवं पितृयाण के मार्गों का ज्ञान अवश्य था। अत: ऋ० (१०८८११५) में वर्णित दोनों मार्ग देवयान एवं पितृयाण हैं न कि दिन एवं रात्रि जैसा कि ड्युशन महोदय ने लिखा है। देखिए शतपथब्राह्मण (१२।८।१।२१ एवं १।६।३।१-२) । देवयान कभी-कभी ऋग्वेद में बहुवचन में प्रयक्त हुआ है, यथा--३।५८।५, ७।३८१८, ७।७६।२, १०१५१३५, १०।६८१११ । ऋ० (१०।१५।८) में ऐसा आया है कि यम ने ऋषि के पूर्वपुरुषों के साथ आहुतियों का आनन्द लिया और ऋ० (१११५४१४) में यम से प्रार्थना की गयी है कि वे सदाचारी एवं तपस्वी पितरों में सम्मिलित हो जायें। शत० प्रा० (१३१८११५) में आया है कि पितरों का द्वार दक्षिण में है और दोवों एवं मनुष्यों का उत्तर में (शत० ब्रा० ११२५११७ एवं १२।४।२।१५) । अथर्ववेद (१५।१२।५) ने देवयान एवं पितृयाण मार्गों का उल्लेख किया है।
कौषीतकि उप० (१) ने आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु को चित्र गाायणि द्वारा पढ़ायी गयी पञ्चाग्निविद्या के भाग के रूप में दो भागों के सिद्धान्त को निगूढ ढंग से व्यक्त किया है। हम इसे स्थानामाव से यहीं छोड़ते हैं, केवल एक उक्ति को महत्वपूर्ण समझ कर उद्धृत किया जा रहा है-'उसने (चित्र ने कहा कि वे सभी जो यहाँ से प्रस्थान करते हैं, चन्द्र को जाते हैं। शुक्ल पक्ष (पूर्व पक्ष) उनके प्राणों से आप्यायित हो जाता (बढ़ जाता) है, कृष्ण पक्ष में चन्द्र उन्हें पुन: जन्म लेने के लिए भेज देता है। सच है, चन्द्र ही स्वगिक लोक का द्वार है । यदि कोई चन्द्र को नहीं अपनाता है (अर्थात् यहाँ के जीवन से असन्तुष्ट है), चन्द्र उसे मुक्त कर देता है । किन्तु यदि कोई असन्तुष्ट नहीं है तो चन्द्र उसे वर्षा के रूप में यहाँ भेज देता है और अपने कर्मों एवं ज्ञान के अनुसार वह यहाँ पुनः कीट, पतंग, पक्षी, व्याघ्र सिंह या मछली या सर्प या मनष्य या किसी अन्य के रूप में विभिन्न स्थानों में जन्म लेता है' (१२)। पुनः (११३) में देवयान का उल्लेख है, और (१।४) में ऐसा आया है--'सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों से मुक्त हो कर वह जो ब्रह्मविद् है, केवल ब्रह्म की ओर बढ़ता है।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org