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कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त
अन्तर है; मिलाइए, उदाहरणार्थ, बृह० उप० (६।२1११ ) एवं छा० उप० (५।३।६) छा० उप० में प्रथम प्रश्न के उत्तर में दोनों मार्गों का उल्लेख है । दूसरे प्रश्न का उत्तर छा० उप० (५२१०१८) में है । चन्द्र तक पहुँचने पर मार्ग पृथक्-पृथक् हो जाते हैं । ( तीसरे प्रश्न का उत्तर ), जैसा कि छा० उप० (५।१०।२ एवं ४-५ ) में आया है । चौथे प्रश्न का उत्तर छा० उप० ( ५०१०१८ ) में है । पाँचवें प्रश्न का उत्तर 'पंचाग्निविद्या' की उक्ति द्वारा दिया गया है ।
आगे कुछ और कहने के पूर्व इस विषय में कुछ लिख देना आवश्यक प्रतीत होता है कि शरीर के मरने के उपरान्त क्या होता है अथवा क्या सम्भव हो सकता है । इस विषय में तीन सम्भावनाएँ हैं, यथा(१) सम्पूर्ण विलोप, (२) स्वर्ग या नरक में अनन्त प्रतिकार ( बदला, अर्थात् फल भोगना ), एवं ( ३ ) पुनर्जन्म | लोग आत्मा की अमरता में विश्वास नहीं करते वे प्रथम मत का प्रतिपादन करते हैं । प्राचीन भारत में भी, कठोपनिषद् (१।२० ) ने प्रमाण दिया है, कुछ लोग मृत्यूपरान्त आत्मा के अतिजीवन ( जीते रह जाने) में शंकाएँ रखते थे । जो लोग अतिजीवन ( सरवाइवल ) में विश्वास नहीं करते वे अन्य प्रश्नों से व्यामोहित अथवा चिन्तित नहीं होते । अतः मृत्यु के उपरान्त वाला अति जीवन- सम्बन्धी प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है अर्थात् क्या भौतिक शरीर की मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति (या उसका आत्मा या उसका कोई अपनापन ) का कोई चिह्न बचा रहता है ? श्वेताश्वतरोपनिषद् का प्रथम मन्त्र चार समस्याएँ उपस्थित करता है-- ( १ ) क्या ब्रह्म ही कारण है ? ; (२) हम कहाँ से आते हैं ? ; (३) हमें कौन पालता है ? तथा ( ४ ) हम कहाँ जा रहे हैं ? जो लोग ईश्वर स्वर्ग एवं नरक में विश्वास करते हैं उनमें बहुत से लोग आत्मा के पूर्वास्तित्व में विश्वास नहीं करते, वे केवल उत्तरास्तित्व (पश्चात् वाले अस्तित्व ) में विश्वास करते हैं। वे ऐसा विश्वास करते हैं कि यदि व्यक्ति इस जीवन में सदाचारी है तो उसे स्वर्ग में आनन्द का अनन्त जीवन प्राप्त होगा, और जो पापमय जीवन बिताता है वह मृत्यु के उपरान्त नरक में सदा के लिए निवास करेगा । बाइबिल एवं कुरान में विश्वास करने वाले ऐसा विश्वास करते हैं, और उनकी दृष्टि में सुकृत ( साधुता, धर्माचरण या सदाचार ) केवल ईश्वर की इच्छा के प्रति श्रद्धा रखने में है (जैसा कि बाइबिल या कुरान में 'इलहाम' या अन्तःप्रेरणा के रूप में व्यक्त है) । बहुत कम लोग प्रथम सम्भावना, अर्थात् सम्पूर्ण नाश ( विलोप) वाले सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं, क्योंकि इससे मनुष्य की कामनाओं से विरोध उठ खड़ा होता है, क्योंकि व्यक्ति सोचता है कि उसने इस जीवन में जो कुछ मानसिक एवं आध्यात्मिक रूप में कमाया है वह बिना कुछ चिह्न छोड़े सर्वथा विलुप्त नहीं हो सकता। दूसरी सम्भावना अनन्त पुण्यफल या पापफल भोगने की ओर इंगित करती है, और इसमें बहुत लोग विश्वास नहीं करते, विशेषतः जब वे सोचते हैं कि जीवन तो अल्प होता है और
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६. छा० उप० (५५१०१४ ) : 'आकाशाच्चन्द्रमसमेष सोमो राजा तद्देवानामन्नं तं देवा भक्षन्ति एवं बृ० उप० (६।२।१६ ) : 'ते चन्द्रं प्राप्यानं भवन्ति तांस्तत्र देवा: भक्षयन्ति । वे० सू० (३१११७) में इनका विवेचन है ( भाक्तं वानात्मवित्त्वात्तथाहि दर्शयति ), उसमें आया है कि शब्दों (देव उन्हें खाते हैं, 'भक्षयन्ति ) को शाब्दिक अर्थ में नहीं लेना चाहिए प्रत्युत लाक्षणिक अर्थ में । वास्तव में, कहने का तात्पर्य यह है कि देवों को उनका साथ यज्ञ करते हैं, क्योंकि छा० उप० (३1८1१ ) में स्वयं आया है कि देव लोग न तो खाते हैं और न पीते हैं, किन्तु वे अमृत की देख कर अवश्य सन्तुष्ट होते हैं ।"
अच्छा लगता है जो लोग
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