Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 372
________________ कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त ' एवं कर्म । इस विषय में देखिए ड्यूशन (फिलॉसॉफी आव दि उपनिषद्स, पृ० ३४८) एवं जेराल्ड हर्ड ('इज गॉड एविडेण्ट', पृ० ३४) की भावभीनी टिप्पणियाँ । - उपयुक्त वचन के पहले एवं उपरान्त कई उदाहरण आये हैं, जिनमें दो यहाँ दिये जा रहे हैं, जिससे यह बात व्यक्त हो जायगी कि आत्मा किस प्रकार एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है। जिस प्रकार एक झिनगा घास के एक अंकुर के पोर पर पहुँचने के उपरान्त दूसरे अंकुर के पास पहुँचने की गति करता है, उसकी ओर अपने को खींच लेता है और उस पर अपने को अवस्थित कर लेता है, उसी प्रकार यह (जीव का) आत्मा मृत्यु पर अपने शरीर को त्याग कर, अविद्या को हटाता हुआ, दूसरे शरीर की ओर पहुँचता हुआ उसकी ओर अपने को खींच लेता है और उसी में अपने को अवस्थित कर लेता है' (बृ० उप० ४।४।३) । दूसरा उदाहरण यह है-'जिस प्रकार सर्प का केंचुल पिपीलिका के टूह पर मरा हुआ एवं फेंका हुआ रहता है, उसी प्रकार यह शरीर पड़ा रह जाता है और तब आत्मा, शरीर रहित, अमरात्मा हो जाता है और केवल ब्रह्म होता है। - यह सम्पूर्ण वचन (बृ. उप० ४।४।५-७) सबसे मुख्य, प्राचीन एवं स्पष्ट वचन है और उपनिषदों में पाये जाने वाले पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर प्रभूत प्रकाश डालता है। इसी प्रकार के अन्य वचन भी हैं । याज्ञवल्क्य एवं आर्तभाग की कथा के अन्त में (जहाँ याज्ञवल्क्य ने आर्तभाग से एकान्त में मृत्यु के उपरान्त होने वाली अवस्था के विषय में बातें की हैं) उपनिषद में आया है.---'उन्होंने जो कहा वह केवल कर्म था, उन्होंने जिसकी प्रशंसा की, वह कर्म ही है। व्यक्ति अच्छे कर्मो से अच्छा होता है और दुष्कर्मों से बुरा होता है' (बृ. उप० ३।३।१३)। ये दोनों ऐसे मौलिक वचन हैं जो पुनर्जन्म के सिद्धान्त के आधार में पड़े तर्क एवं उद्देश्य की व्याख्या उपस्थित करते हैं। उपर्युक्त दोनों उक्तियों का सारांश यह है कि इस जीवन में किये गये कर्म एवं आचारण मनुष्य के भावी जीवन का निर्माण करने वाले होते हैं और वर्तमान जीवन मनुष्य द्वारा अतीत जीवन या जीवनों में किये गये कर्मों या व्यवहार का फल है। किन्तु कर्म एवं आचरण (व्यवहार) मनुष्य की इच्छा (संकल्प) पर निर्भर रहते हैं और यह संकल्प (या इच्छा) कामनाओं के कारण ही जागता है। मनुष्य की कई कामनाएँ हो सकती हैं, वह उनमें कुछ को दबा सकता है, किन्तु कुछ कामनाओं की निष्पत्ति अथवा सिद्धि के लिए वह संकल्प ले सकता है। अतः कामनाएँ (अथवा केवल 'काम') संकल्प (या इच्छा), कर्मों एवं आचरण का आधार (मूल या जड़) है और अन्ततोगत्वा वही जन्मों एवं मरणों के चक्र (जिसे संसार कहा जाता है) के मूल में भी है। इसी से शंकराचार्य ने 'यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा' (वृ० उप० ४।५७) का अनुसरण करते हुए कहा है--'कामो मूलं संसारस्य' अर्थात् काम संसार का मूल है। बृहदारण्यकोपनिषद् (६।२) में एक अन्य महत्त्वपूर्ण वचन है । वहौ आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु के बारे में एक कथा आयी है। श्वेतकेतु अपनी विद्या के घमण्ड में चूर पञ्चालों के सभा-भवन में आये और वहाँ पर नौकरों द्वारा सेवा पाते हुए प्रवाहण जैवलि (एक क्षत्रिय या राजकमार) को देखा। श्वेतकेतु को देख लेने पर राजकुमार ने उनसे पूछा-'क्या आपने अपने पिता से शिक्षा पायी है ?' जब श्वेतकेतु ने 'हाँ' कहा तो राजकुमार ने उनसे पाँच प्रश्न किये ; यथा-(१) क्या आप यह जानते हैं कि जब मनुष्य यहाँ से जाते हैं तो वे किस प्रकार विभिन्न दिशाओं को जाते हैं ? ; (२) क्या आप यह जानते हैं कि वे किस प्रकार यहाँ लौट आते हैं ? ; (३) क्या आप यह जानते हैं कि सामने वाला लोक किस प्रकार बहुत लोगों द्वारा बार-बार जाने पर भी भर नहीं पाता?; (४) क्या आप यह जानते हैं कि किस कृत्य की आहुति पर जल मानव वाणी से युक्त हो जाते हैं, उठ पड़ते हैं और बोल उठते हैं ?; (५) क्या आप देवयान एवं पितृयाण नामक मार्गों की पहुँच को जानते हैं ? (अर्थात् क्या आप उन कर्मों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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