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कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त
३५३ से अग्निहोत्र करता है वह परलोक में प्रातः एवं सायं भोजन करता है, दर्श एवं पूर्णमास को करने वाला प्रत्येक पक्ष में भोजन करता है; चातुर्मास्यों (ऋतुओं वाले यज्ञ) को करने वाला सामने के लोकों में प्रति चार मासों के उपरान्त भोजन करता है; पशु-यज्ञ करने वाला प्रत्येक ६ मासों पर खाता है; सोम यज्ञ करने वाला एक वर्ष के उपरान्त भोजन करता है; अग्निचयन वेदिका का निर्माण करने वाला प्रत्येक सी वर्षों पर इच्छा के अनुसार खाता है या एक बार खा लेने पर खाने की आवश्यकता नहीं समझता है।
शतपथब्राह्मण इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि प्रत्येक व्यक्ति अपने मन के अनुसार निर्मित लोक में जन्म लेता है। उसने यह दृढ़तापूर्वक व्यक्त किया है कि जो देवों के लिए यज्ञ करता है वह उस लोक को नहीं प्राप्त करता है जिसे आत्मा के लिए यज्ञ करने वाला पाता है और आत्मा के लिए यज्ञ करने वाला व्यक्ति अपने शरीर से, पाप से, उसी प्रकार मुक्ति पाता है जिस प्रकार सर्प अपने केंचुल से पाता है (११।२।६।१३-१४)।
यह मान लेना होगा कि कर्म एवं पुनर्जन्म सिद्धान्त सम्बन्धी स्पष्ट वक्तव्य का ऋग्वेद में अभाव है। ऋग्वेद का ७३३ एक महत्त्वपूर्ण सूक्त है। प्रथम ६ मन्त्रों में वसिष्ठ ने अपने पुत्रों के विषय में कहा है। १०-१४ स्वयं वसिष्ठ के लिए प्रयुक्त हैं जो या तो उनके पुत्रों द्वारा कथित हैं या एक अन्य मत से इन्द्र के साथ हुई बातचीत का एक अंश हैं । ये मन्त्र देवताख्यान युक्त हैं, रहस्यवादी हैं और व्याख्या के लिए अति कठिन । १० वें मन्त्र में वसिष्ठ के जन्म की ओर इंगित है जब कि मित्र एवं वरुण ने उन्हें विद्युत् के अतितेत्र के पास पहुँचते हुए देखा, और ऐसा कहा गया है कि अगस्त्य उन्हें (वसिष्ठ को) लोगों के पास ले आये । यहाँ पर 'एक जन्म' से ज्ञात होता है कि इस सूक्त में वसिष्ठ के अन्य जन्म की ओर भी संकेत है । ११वें मन्त्र में वसिष्ठ को उर्वशी से उत्पन्न मित्र एवं वरुण का पुत्र कहा गया है और ऐसा आया है कि सभी देवों ने उन्हें एक पुष्कर (अन्तरिक्ष या कमल) में रखा। १२वा मन्त्र लाक्षणिक एवं रहस्यवादी होने के कारण महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यम द्वारा फैलाये गये वस्त्र को बुनने की इच्छा करते हुए वसिष्ठ उर्वशी से उत्पन्न हो गये। १३वें श्लोक में आया है कि दोनों (मित्र एवं वरुण) ने बीज को एक घड़े में डाल दिया, जिसके मध्य से अगस्त्य निकले और वसिष्ठ भी उत्पन्न हुए। १४वाँ मन्त्र प्रतृदों को सम्बोधित है और उनसे कहा गया है कि वे वसिष्ठ के सम्मान में लग जायें जो उनके पास यज्ञ (कराने) के लिए आयेंगे। यह, ऐसा प्रतीत होता है, वरिष्ठ का दूसरा जन्म है।
प्रो० आर० डी० रानाडे ने अपने ग्रन्थ 'कांस्ट्रक्टिव सर्व आव दि उपनिषदिक फिलॉसॉफी' (पृ० १४५-१४६) में ऋग्वेद के कुछ मन्त्रों पर निर्भर हो कर यह कहने का प्रयास किया है कि वैदिक ऋषियों ने पुनर्जन्म की ओर संकेत किया है (पृ० १४७) । किन्तु प्रो० रानाडे ने (उसी पृष्ठ पर) स्वयं यह माना है कि ऋग्वेद के अधिकांश माग में पुनर्जन्म की भावना का सर्वथा अभ.व है। स्थानाभाव से हम उनके तर्कों की जाँच यहाँ नहीं कर पायेंगे। पूर्ण जानकारी के लिए देखिए मूल ग्रन्थ, पृ० १५३७-१५४८ ।
श्री जे. एस० करन्दीकर ने (पूना-निवासी, जो लोकमान्य तिलक के कट्टर शिष्य हैं) अपने ग्रन्थ 'गीतातत्त्व मञ्जरी, (मराठी में, १६४७) में यह दर्शाया है कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त वैदिक संहिताओं में पाया जाता है
और इस विषय में उन्होंने ऋग्वेदीय चार ऋचाओं (१०११४१८, १०।१६।३ एवं ५ तथा १०११३५१६, का आश्रय लिया है। किन्तु उनको धारणा निर्मूल है। उन्होंने ऋचाओं का जो अर्थ लगाया है, वह ठीक नहीं है। विशेष तक एवं विवेचन के लिए देखिए इस ग्रन्थ का मूल पृ० १५४२ से पृ० १५४४ (खण्ड ५)।
त० सं० (२।६।१०।२) में एक मनोरम वचन आया है-'जो व्यक्ति किसी ब्राह्मण को धमकी देता है वह इसके लिए एक सौ वर्षों तक प्रायश्चित्त करेगा, जो उसे पीटता है वह एक सहस्र, वर्षों तक (प्रायश्चित्त करेगा), जो ब्राह्मण का रक्त गिरायेगा वह उतने वर्षों तक अपने पितरों के लोक को नहीं जानेगा जितने मिट्टी के कण
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