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विक-विद्या
३२१ तत्त्व या बीज तत्त्व) था, जो विभिन्न नामों से पुकारा जाता था और उसने विश्व की रचना करनी चाही और उसे अपने में से ही रचा।
उपर्युक्त सूक्त के मन्त्रों के अतिरिक्त, जिन्हें सृष्टिसूक्त की संज्ञा दी जा सकती है, ऋग्वेद में कतिपय देवों द्वारा द्यावा (स्वर्ग) एवं पृथिवी की रचना या आश्रय तथा अन्य पदार्थों की रचना के विषय में निर्देश अथवा संकेत मिलते हैं ।" ऋ० (१०।८६१४) में इन्द्र को स्वर्ग एवं पृथिवी से सभी दिशाओं में वैसा ही निर्माण करने वाला कहा गया है जैसा कि धुरी पहियों के साथ करती है। ऋ० (१३१५४१४) में विष्णु के विषय में आया है कि वे अकेले ही तीनों को, यथा पृथिवी, स्वर्ग (एवं अन्तरिक्ष) तथा सभी लोकों को आश्रय (सहारा) देते हैं (या सँभालते हैं)। मित्र के बारे में ऐसा आया है कि वह स्वर्ग एवं पृथिवी को सँभालता है (ऋ० ३।५६१) तथा सभी देवों को आलम्बन देता है (ऋ० ३१५६८) । ब्रह्मणस्पति (स्तुति के पति या स्वामी, बृहस्पति) के विषय में ऐसा आया है कि उसने लोहकार की भांति देवों को जन्म दिया.... देवों के आदि काल में सत् की उत्पत्ति असत् से हुई।१२ ऋ० (६४७।४) में सोम के लिए आया है कि उसने पृथिवी की चौड़ाई, स्वर्ग की
बनायी तथा विस्तृत अन्तरिक्ष को सँभाला। ऋ० (२१४०, जो सोम एवं पूषा को सम्मिलित रूप से सम्बोधित है) में ऐसा आया है कि उनमें एक (सोम) ने सभी लोकों (भुवनों) को उत्पन्न किया और दूसरा (अर्थात् पूषा, सर्य) सम्पूर्ण विश्व के कामों को देखता या उनका निरीक्षण करता जाता है (मन्त्र ५)।
ऋग्वेद (७१७८१३) में उषाओं (बहुवचन) को सर्य, यज्ञ एवं अग्नि की स्रष्टा कहा गया है। यह केवल लाक्षणिक है, क्योंकि प्रत्येक उषा के उपरान्त सूर्य उदित होता है, यज्ञिय अग्नि प्रज्वलित की जाती है तथा यज्ञ किया जाता है। ऋ० (१९६२) में अग्नि को मनष्यों का पिता (पूर्वज) कह (२॥३५२) में (अपां नपात, जलों का पौत्र अर्थात अग्नि) अग्नि को सभी लोकों का स्रष्टा कहा गया है ।
ऋग्वेद में द्यावा-पृथिवी (स्वर्ग एवं पृथिवी, युग्म देवों के रूप में) के लिए ६ सूक्त हैं, यथा-१११५६-१६०, १८५, ४१५६, ६१७० एवं ७१६३, और उन्हें रोदसी' एवं 'बहिनें' (ऋ० १।१८५५) कहा गया है। उन्हें देवों के जनक-जननी कहा गया है (ऋ० ८१६७८, १०।२१७)।
___'अन्तरिक्ष (वायुमण्डलीय क्षेत्र) शब्द ऋग्वेद में कम-से कम एक सौ बार आया है। कभी-कभी 'तिस्रः पृथ्वी:' जैसे शब्द-विन्यास आते हैं, जिनका अर्थ है पृथिवी के सहित तीन लोक (ऋ० ११३४१८), और कहींकहीं नीचे वाली, बीच वाली एवं सबसे ऊपर वाली पृथिवी की चर्चा है (यद् इन्द्राग्नी अवयस्यां पृथिव्यां मध्यमस्यां परमस्यां उत स्थः । ऋ० १।१०८।६), जिसका अर्थ है पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग । अन्तरिक्ष को बहुधा 'रजस्' (वह क्षेत्र, जहाँ धूल हो, कुहा हो और जहाँ बादल हों) कहा गया है (ऋ० ११३५।२ एवं ६)।
११. य उ त्रिधातु पृथिवीमुत चामेको दाधार भुवनानि विश्वा। ऋ० ११५४।४। 'त्रिधातु' शब्द ऋग्वेद में कम-से-कम दो दर्जन बार प्रयुक्त हुआ है, किन्तु इसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो सका है। ऋ० (८१४०।१२) में आया है-'त्रिधातुना शर्मण पातमस्मान्' (तीन प्रकार की रक्षा से हमारी रक्षा करो), किन्तु 'त्रिधातु' रक्षा क्या है, कहना कठिन है।
१२. ब्रह्मणस्पतिरेता... समजायत । ऋ० (१०७२।२)। प्रथम मत्र (देवानां नु वयं जाना प्रवोचाम विपन्यया) में 'एता' शब्द 'जाना' (जन्मानि) की ओर संकेत करता है । 'सत्' एवं 'असत्' के अर्थ के लिए देखिए पाव-टिप्पणी ।
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