Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 342
________________ मन की सृष्टि 'मैं ऐसा हो जाऊँ' इस विचार के साथ की।' उसी ब्राह्मण (२१६२१३) ने पुनः कहा है'प्रजापति ने वेद की सहायता से 'सत्' एवं 'असत्' दो रूप बनाये ।' तै० ब्रा० (२१८१८१६-१०) ने पुरोडाश की पुरोनुवाक्या एवं याज्या तथा हवि की पुरोनुवाक्या को इस प्रकार उल्लिखित किया है-'ब्रह्म ने देवों एवं इस विश्व को उत्पन्न किया; ब्रह्म से क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई और ब्रह्म ने अपने रूप से ब्राह्मणों को उत्पन्न किया; (याज्य) 'ये लोक ब्रह्म के भीतर रहते हैं । उसी प्रकार यह सारा लोक इसमें निवास करता है। ब्रह्म सभी भूतों में सर्वोत्तम है; इससे कौन स्पर्धा करता है, ब्रह्म ३३ देवों के रूप में है और सभी भूत (प्राणी) इसमें उसी प्रकार हैं जैसे किसी नाव में ।' कौषीतकि ब्राह्मण में प्रजापति के विषय में संक्षिप्त इंगित हैं । इसमें (६३१) आया है-'प्रजापति ने सन्तति की कामना से तप किया, वे जब इस प्रकार तपस्या कर रहे थे तो पाँच, यथा--अग्नि, वायु, आदित्य, चन्द्र एवं उषा की उत्पत्ति हुई'; पुनः (६।१०) आया है-'प्रजापति ने तप किया, तप करने के उपरान्त उन्होंने प्राण से यह विश्व (पृथिवी), अपान से यह अन्तरिक्ष तथा व्यान से सामने का लोक (स्वर्ग) बनाया; इसके उपरान्त उन्होंने पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग से क्रम से अग्नि, वायु एवं आदित्य की रचना की, और उन्होंने अग्नि से ऋग्वेद की ऋचाएँ, वायु से यजुर्वेद के वचन तथा आदित्य से साम के वचन उत्पन्न किये।' पुनः (१३॥१) ऐसा आया है-'प्रजापति ही वास्तव में यज्ञ है, जिसमें सभी काम (इच्छाएँ या कामनाएँ), सभी अमृतत्व (अमरता) केन्द्रित हैं ।' पुनः (२८।१) उसमें ऐसा आया है-'प्रजापति ने यज्ञ की सर्जना की, देवों ने यज्ञ के द्वारा, जब इसकी उत्पत्ति हुई, पूजा की और इसके द्वारा सभी इच्छित पदार्थों की उपलब्धि की ।' वेद के ब्राह्मणों का प्रधान ध्येय एवं उद्देश्य है विभिन्न यज्ञों से सम्बन्धित क्रिया-संस्कारों के कृत्यों एवं अंशों की व्यवस्था उपस्थित करना, उनके उद्भव से सम्बन्धित कथा-वार्ताओं, किंवदन्तियों आदि को उपस्थित करना तथा बहुत से यज्ञों के सम्पादन पर कतिपय पुरस्कारों अथवा फलों की स्वीकृति देना । ग्रन्थों में प्रजापति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख हो गये हैं । प्रजापति का उल्लेख ऋग्वेद में बहुत ही कम हुआ है। ऋ० (४१५३१२) में सविता को प्रजापति, ऋ० (५६) में सोम को प्रजापति कहा गया है। ऋ० (१०१८५४) के विवाहसूक्त में प्रजापति का आह्वान सन्तान देने के लिए किया गया है। ऋ० (१०। १६६४) में गौओं के लिए प्रजापति का आह्वान किया गया है। ऋ० (१०।१८४३१) में विवाहित नारी के गर्भाधान के लिए अन्य देवों एवं देवियों के साथ प्रजापति का भी आह्वान किया गया है । ऐतरेयब्राह्मण में गाथा आयी है कि वृत्र को मारने के उपरान्त जब इन्द्र प्रजापति के स्थान पर उच्च एवं सम्मानित होना चाहते थे तो प्रजापति ने पूछा (यदि तुम बड़े होना चाहते हो तो) 'मैं क्या होऊँगा?' (कोहमिति) और इसी कारण प्रजापति को 'क' की संज्ञा मिली ।१८ १७. प्रजापति यज्ञस्तस्मिन्सर्वे कामाः सर्वममृतत्वम् । कौषी० बा. (१३।१); प्रजापतिहं यज्ञं ससृजे तेन ह सृष्टेन देवा ईजिरे तेन हेष्ट्वा सर्वान्कामानापुः । वही (२८।१, लिण्डनर का संस्करण, जेना, १८८५) । १८. ऋग्वेद के १०११२१ में वं मन्त्र का अन्तिम चरण यों है-"कस्म देवाय हविषा विधेम" (अर्थात् किस देवता को हम हवि देंगे?)। इसके उपरान्त बसवा मन्त्र एवं अन्तिम मन्त्र प्रजापति को इस प्रकार सम्बोषित करता है-'आपके अतिरिक्त कोई अन्य देवता ऐसा नहीं है जिसने इन सभी सृष्टियों को परिवृति कर रखी हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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