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विश्व-विधा
किये हैं, यथा (१) जीवात्मा अजन्मा है तथा (२) यह श्रुतिवचनों के आधार पर नित्य है (नात्माश्रुतेनित्यत्वाच्च ताभ्यः) । यह पर ब्रह्म किस प्रकार बहुसंख्यक विश्व में फैलता है और विभु रूप में समाहित रहता है, यह एक बड़ा रहस्य है, जिसे हम उदाहरणों से समझा सकते हैं। कुछ ऐसे वचनों को, जिनमें जीवात्माओं की सृष्टि एवं प्रलय का उल्लेख-सा प्रतीत होता है, हम उन उपाधियों की ओर इंगित करते हुए समझ सकते हैं जिनसे आत्मा प्रभावित हो जाता है। मैत्रेयी को समझाते हुए याज्ञवल्क्य ने अन्तिम निष्कर्ष निकाला है और इस प्रकार का उत्तर दिया है-'यह आत्मा अविनाशी एवं अक्षय है, किन्तु (जब कोई मृत्यु की बात करता है तो उसका तात्पर्य यह है कि) आत्मा का भौतिक पदार्थों से'कोई सम्बन्ध नहीं होता।'२७ यही बात शान्तिपर्व (१८०।२६-२८ = १८७।२७-२६, चित्रशाला संस्करण) एवं गीता (२।२०, २१, २४, २५) में भी कही गयी है ।२८ ।
केवल थोड़े ही लोग सर्वोच्च आध्यात्मिक दृष्टिकोण को समझ सकते हैं। कोटि-कोटि लोगों के लिए प्रयोगसिद्ध दृष्टिकोण ही बच रहता है, और उन्हीं के लिए उपनिषद्-वचन दैहिक-ईश्वर, क्रिया-संस्कार एवं यज्ञों की व्यवस्था देते हैं। ऐसे लोग प्रकाश की सीढ़ी के प्रथम चरण पर ही अवस्थित हैं और ईश्वर के विषय में अल्पांश ही। जानते हैं ; उपरि-वर्णित लोगों की अपेक्षा थोड़े से अन्य लोग हैं, जो ईश्वर की पूजा करते है, उसे खोजते हैं और अन्त में इसकी अनुभूति करते हैं कि ईश्वर अन्तःस्थ एवं सर्वोत्तम है; बहुत थोड़े लोगों की एक तीसरी कोटि भी है, जिसमें बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, आध्यात्मिक विशिष्ट लोग हैं, यथा शंकराचार्य जैसे विशिष्ट लोग, जो शुद्ध अद्वैतवाद के शिखर पर पहुँच पाते हैं, जो अहंकार का त्याग कर देते हैं, जो पर ब्रह्म से संयुक्त हो जाने की पूर्ण अवस्था में हैं और वे ऐसा नहीं कह सकते और न उन्हें ऐसा कहना ही चाहिए कि जीवात्मा एवं भौतिक संसार अवास्तविक (माया) हैं। बादरायण (वे० सू० २।२।२६, 'वैधाच्च न स्वप्नादिवत्') एवं शंकराचार्य दोनों इस बात में एकमत हैं कि सामान्य भौतिक संसार स्वप्नों से पूर्णतया भिन्न है और जाग्रत् अवस्था के प्रभाव में स्थित पदार्थों से पृथक् नहीं है। इस प्रश्न के रहते हुए भी कि क्या माया शब्द (वे० सू० ३।२।३ में प्रयुक्त–'मायामात्र तु. .. ) बादरायण द्वारा उसी अर्थ में प्रयुक्त है जिसे शंकराचार्य ने समझा है, ऐसा नहीं कहा जा सकता कि कठोपनिषद् (२।४।२), प्रश्नोपनिषद् (१।१६), छान्दोग्योपनिषद् (८।३।१-२) के वचन तथा बृहदारण्यकोपनिषद् (१।३।२८) की प्रार्थना ('असतो मा सद् गमय. . . ') से बड़ी सरलतापूर्वक माया के सिद्धान्त का निर्देश मिल जाता है और वह एक बुद्धियुक्त विकास का द्योतक है । अत: अधिकांश में सभी मनुष्यों के लिए ही उचित है कि वे विश्व को माया न कहें। यदि जीवात्मा एवं संसार अवास्तविक हैं तब तो उस व्यक्ति द्वारा जो मायावाद को स्वीकार नहीं करता, ऐसा तर्क किया जा सकता है कि मायावादी ऐसी शिक्षा दे रहा है कि अवास्तविक आत्मा को अवास्तविक संसार से छुटकारा प्राप्त करना है और प्राप्त करना
२७. अविनाशी वा अरे आत्मानुच्छित्तिधर्मा मात्रासंसर्गस्त्वस्य भवति । बृह० उप० (४।५।१४) । यह शंकराचार्य द्वारा (वे० सू० २।३।१७) उद्धृत है।
२८. न जीवनाशोऽस्ति हि देहभेदै मिथ्यैतदाहुमत इत्यबुद्धाः। जीवस्तु देहान्तरितः प्रयाति 'दशार्धवास्य शरीरभेदः ॥ एवं सर्वेष भतेष गढश्चरति संवृतः । दृश्यते त्वग्रयया बुद्ध्या सूक्ष्मया तत्त्वदर्शिभिः ।। तं पूर्वापरराष
तं बधः। लध्वाहाँरो विशुद्धात्मा पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ शान्ति० (१८०।२६-२.८ १८७ । २७-२६. चित्रशाला)। 'वशाध' का अर्थ है पांच एवं दशार्धता का अभिप्राय है 'पञ्चत्व' । 'न जीवनाशोस्ति' को मिलाइए छार उप० (६।११।३)-जीवापेतं .... इति (देखिए ऊपर पाद-टिप्पणी.२६) तथा कठोपनिषद् (३३१२) ।
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