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विश्व-विद्या
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दूर-दूर पड़ जाते हैं, और एक-दूसरे से व्यामोहित नहीं हो पाते, दिन एवं रात्रि इसके ऊपर नहीं हो पाते (नहीं तैर पाते), और न जरा न मृत्यु, न शोक और न सुकृत एवं दुष्कृत ही (इसके ऊपर हो पाते); सभी दुष्कृत अथवा पापमय कर्म इससे दूर भाग जाते हैं, क्योंकि ब्रह्मलोक सभी पापमय कृत्यों से मुक्त है।' इसी प्रकार कौषीतकि उप० (१।४) में भी आया है-'अच्छे कर्मों एवं बुरे कर्मों से युक्त होने पर यह ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म की ओर बढ़ता है' (ब्रह्म से एक हो जाता है या ब्रह्म में समाहित हो जाता है अथवा ब्रह्मलीन हो जाता है)।
उपर्युक्त वचनों से प्रकट है कि उपनिषदों के अनुसार संन्यासी को केवल जीने के लिए, जब तक शरीर चलता रहता है, छोड़कर सभी प्रकार के कर्मों का पूर्णतया त्याग करना होता है। जाबालोपनिषद् (४ : 'यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रवजेत्') में आया है-'जिस दिन विराग हो जाय उसी दिन संन्यासी (परिव्राजक, घूमने वाला संन्यासी) हो जाना चाहिए। इससे प्रकट है कि केवल ज्ञान ही नहीं, प्रत्युत सांसारिक जीवन से विराग हो जाना भी संन्यास ग्रहण के लिए आवश्यक है । और देखिए कठोपनिषद् (२।२४) । प्रश्नोपनिषद् (१।१६) में दृढतापूर्वक कहा गया है कि 'केवल उन्हीं के पास ब्रह्म का पवित्र लोक आता है, जिनमें वक्रता नहीं होती, झूठ नहीं होती और माया या द्वैधीभाव नहीं होता।'33 उपनिषदें कभी-कभी कहती हैं कि 'जो ब्रह्म को जानता है वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है' (मुण्डकोप० २।३।६), किन्तु वे ही पुनः कहती हैं (मण्डकोप० १।२।१२-१३) कि ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त महान नैतिक एवं आत्मिक उपलब्धियाँ आवश्यक हैं।
___ संस्कृत-साहित्य में मोक्ष के लिए कतिपय शब्दों का प्रयोग हुआ है । अमरकोश ने मुक्ति, कवल्य, निर्वाण, भयस्, निःश्रेयस्, अमृत, मोक्ष एवं भपवर्ग को एक दूसरे का पर्याय माना है। उपनिषद् एवं गीता ने बहुधा मुक्ति, मोक्ष एवं अमृत (या अमृतत्व) का प्रयोग किया है । कई दृष्टिकोणों से उन्होंने मोक्ष की अवस्था का उल्लेख किया है । मानव में वासनाओं के प्रति गम्भीर पिपासा एवं तृष्णा होती है और वह जन्मों एवं मरणों के चक्र में पिसता रहता है, अतः जब आत्मा इन सबसे छुटकारा पा लेता है और ब्रह्म की अनुभूति कर लेता है तो ऐसा कहा जाता है कि यह अमर हो गया है या इसने अमरता प्राप्त कर ली है। देखिए बृ० उप० (६।४१७ एवं १४, ५।१५-१७, 'विद्ययामृतमश्नुते') छा० उप० (२।२३।२, जो ब्रह्मज्ञान को भली भांति जानता है वह अमरता प्राप्त करता है), कठोप० (६।२ एवं ६), श्वे० उप० (४।१७ एवं २०, ३१, १०,१३), गीता (१२।१३, १४।२०) । 'मुक्ति' एवं 'मोक्ष' दोनों 'मुच्' (स्वतन्त्र हो जाना) धातु से निकले हैं और मुच् के क्रियारूप बहुधा 'अमरता' के साथ प्रयुक्त होते हैं, यथा-कठोप० (६।८, यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति एवं १४), बृ० उप० (४।४७), श्वे० उप० (१३८ एवं ४।१६, ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः)। 'मोक्ष' शब्द का प्रयोग श्वे० उप० (४।१६) एवं गीता (५।२८, ७२६, १८३०)
है । निःश्रेयस (मोक्ष, इससे बढ़कर अन्य कुछ नहीं) का प्रयोग कौषीतकि उप० (३२). गीता (१२) में हुआ है । श्रेयस् शब्द का अर्थ है 'उससे अपेक्षाकृत अच्छा' और इसका प्रयोग उपनिष उप० ११११ एवं छा० उप० ४।६।५) एवं गीता (२७,३१, ३।३५, १८।४७ आदि) में हुआ है, किन्तु कठोपनिषद (२१ एवं २ 'श्रेयस्' जिसका प्रतिलोम है 'प्रेयस्' अर्थात् आनन्द) में इसका अर्थ है 'निःश्रेयस (मुक्ति) ।
३३. नाविरतो खुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः। नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेननमाप्नुयात् ॥ कठोप० (२१२४); तेषामसौ विरजो ब्रह्मलोको न येष जिह्ममन्नतं न माया चेति । प्रश्नोप० (१११६)।
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