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विश्व-विधा
३४१ सम्पूर्ण चल एवं अचल विश्व की उत्पत्ति होती है (३।१२६-१२८) । यहाँ पर पुरुषसूक्त (ऋ० १०६०।१ एवं १२-१४) का पूर्ण अनुसरण है।
पुराणों ने विश्व-विद्या एवं विश्व-विवरण-सम्बन्धी सिद्धान्तों के विषय में सहस्रों श्लोकों की रचना की है । यहाँ हम बहुत संक्षेप में कतिपय अति प्राचीन पुराणों, यथा--मत्स्य, वायु, ब्रह्माण्ड, विष्णु एवं मार्कण्डेय से विवरण उपस्थित करेंगे। पुराणों में पाँच विषयों पर चर्चा होती है, यथा--सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (पुन: सृष्टि एवं प्रलय), वंश (राजकुलों का उल्लेख), मन्वन्तर (काल की विशद अवधियाँ) तथा वंशानुचरित (सूर्य, चन्द्रवंशी तथा अन्य वंशी कुलों का इतिहास)। इस प्रकार बहुत से पुराण विशद रूप में सृष्टि का उल्लेख करते हैं। यहाँ हम थोड़े-से अति प्रसिद्ध एवं विलक्षण सिद्धान्तों एवं वचनों का उल्लेख कर सकेंगे ।
मत्स्यपुराण ने सृष्टि के विषय में मनुस्मृति के सदृश ही उल्लेख किया है और उसके बहुत-से श्लोक सर्वथा अनुरूप हैं या वही हैं। मत्स्य० (२।२७) में आया है-आरम्भ में सर्वप्रथम नारायण ही प्रकट हुए और विविध रूपी विश्व के निर्माण की कामना रखने के कारण उन्होंने अपने शरीर से जलों की उत्पत्ति की, उनमें बीज डाला और एक सोने का अण्डा प्रकट हुआ; उस अण्डे के भीतर सूर्य प्रकट हुआ जो सूर्य एवं ब्रह्मा कहलाया उसने उस अण्डे के दो भागों को स्वर्ग एवं पृथिवी के रूपों में परिणत किया और उन दोनों के बीच सभी दिशाएँ बनायीं तथा आकाश बनाया। इसके उपरान्त मेरु एवं अन्य पर्वतों तथा सात समुद्रों (लवण, ईख के रस आदि वाले समुद्रों) का निर्माण हुआ। नारायण प्रजापति बन गये, जिन्होंने देवों एवं असुरों सहित यह विश्व बनाया। मत्स्य० के तृतीय अध्याय ने वेदों, पुराणों एवं विद्याओं को उनके अधरों से निकला हुआ कहा है और कहा है कि उन्होंने अपने मन से मरीचि, अत्रि आदि दस ऋषि उत्पन्न किये (३।५-८)। इसके उपरान्त मत्स्य० ने सांख्य सिद्धान्तसम्बन्धी विश्व-रचना का उल्लेख किया है (३।१४-२६) और उसमें आया है : गुण तीन हैं, यथा--सत्त्व, रज एवं तम और उनके सन्तुलन की स्थिति प्रकृति कहलाती है, जिसे कुछ लोग प्रधान कहते हैं, अन्य लोग अव्यक्त कहते हैं यह प्रधान सुष्टि करता है । तीन गुणों से ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर प्रकट हुए । प्रधान से महान् का उदय हआ, महान् से अहंकार की उत्पत्ति हुई और तब पांच ज्ञानेन्द्रियों एवं पाँच कर्मेन्द्रियों की उति हई और मन एक ग्यारहवीं इन्द्रिय बना और पांच तन्मात्राएं (सूक्ष्म तत्त्व) बनीं। आकाश की उत्पत्ति शब्द नामक तन्मात्रा से हुई, आकाश से वायु, वायु से तेज तथा तेज से जल की उत्पत्ति हुई, और जल से पृथिवी बनी और पुरुष २५वा तत्व है। इसके उपरान्त मत्स्य० (३।३०-४४) एक विलक्षण गाथा कहता है कि ब्रह्मा ने अपने में से एक स्त्री (शतरूपा, सावित्री, सरस्वती, गायत्री या ब्रह्माणी नाम से पुकारी जाने वाली) की रचना की, और उससे मोहित हो गये और एक लम्बे समय के उपरान्त उससे एक पुत्र प्राप्त किया जिसका नाम था मनु (स्वायम्भुव नामक), एक अन्य पुत्र भी हुआ, जिसका नाम था विराट् । इसके उपरान्त ब्रह्मा ने अपने पुत्रों से लोगों को उत्पन्न करने के लिए कहा। मत्स्य० ने अध्याय ४ में कहा है कि ब्रह्मा को शतरूपा से सात पुत्र उत्पन्न हुए, यथा मरीचि आदि (श्लोक २५-२६, जो ३।५-८ के विरोध में आ जाते हैं); उसने स्वायम्भुव मनु के दो पुत्रों तथा उनके वंशजों का उल्लेख किया है। पाँचवें अध्याय के उपरान्त कुछ अध्याय दक्ष, कश्यप, दिति के वंशजों की तथा पृथु के राज्याभिषेक, सूर्य एवं चन्द्र के कुलों तथा पितरों के विभिन्न वर्गों की चर्चा करते हैं।
वायुपुराण ने सृष्टि-विषयक बातों पर पाँच अध्याय (४-६) लिखे हैं, जिनमें ६०० से अधिक श्लोक हैं। अध्याय ४ (श्लोक २२-६१) में सांख्य सिद्धान्त के अनुसार प्रधान, महत्, अहंकार, तन्मात्रा का उल्लेख है और उसके साथ हिरण्यगर्भ सिद्धान्त जोड़ दिया गया है (श्लोक ६६ तथा आगे) । अध्याय ६ में लगता है
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