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धर्मशास्त्र का इतिहास ग्रौसेट ने अपने ग्रन्थ 'दि सम आव हिस्ट्री' एवं 'इन दि फूटस्टेप्स आव बुद्ध' में भारतीय विश्व-विद्या तथा अन्य बातों की चर्चा की है। उनका ग्रन्थ 'सिविलिजेशन आव दि ईस्ट' भी इस सिलसिले में पठनीय है । और देखिए जेराल्ड हर्ड कृत 'इज़ गॉड एविडेण्ट' , जिसमें संस्कृत वाली विश्व-विद्या को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।
उपनिषदों में दोधारणाएँ साथ-साथ बहती हैं। पहली है वह उच्च आध्यात्मिक धारणा जिसके अनुसार वास्तव में ब्रह्म के बाहर कोई विश्व नहीं है, अर्थात् केवल ब्रह्म ही ब्रह्म है, जो निर्गुण है। दूसरी है वह लोकप्रसिद्ध एवं प्रयोगसिद्ध धारणा जिसके अनुसार एक दैहिक ईश्वर है जो सृष्टि करता है, और सगुण ब्रह्म कहलाता है और एक वास्तविक विश्व भी है। प्रश्न उप० (५२) में आया है कि 'ओम्' पर (सर्वोच्च) ब्रह्म एवं अपर (दूसरा, अधस्थ) ब्रह्म दोनों है। शंकराचार्य (वे० सू० १।१।१२, आनन्दमयोऽभ्यासात्) का कथन है कि उपनिषदों में ब्रह्म का उल्लेख दो प्रकार का है, प्रथम वह है जिसके अनुसार ब्रह्म की कई उपाधियाँ हैं, यथा--उसका नाम है, रूप है, उसने पदार्थों की सृष्टि की है और वह पूजित होता है, तथा दूसरा वह है जिसके अनुसार ब्रह्म गुणरहित अथवा निर्गुण है (जिसका परिज्ञान रहस्यवादी ढंग से होता है) । दूसरे प्रकार (निरुपाधिक या निर्गुण ब्रह्म) के लिए शंकराचार्य ने कतिपय वचनों के उदाहरण दिये हैं, यथा--बृ० उप० (४।५।१५, ३।६।२६ = ४।४।२२, ३।८१८); छा० उप० (७।२४।१); श्वेताश्वतरोपनिषद् (६।१६) । अन्य वचन हैं बृ० उप० (४।४।१६ नेह नानास्ति किंचन), कठ उप० (४।१०-११, मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति)। उपनिषद् अर्थात् वेदान्त का चौथा स्वरूप है शरीर की मृत्यु के उपरान्त आत्मा की नियति तथा अन्य बातें, जो उसके साथ चलती हैं (अर्थात् आचार-शास्त्र एवं परलोक-सम्बन्धी बातें)।
उपर्युक्त वचन यह बताते हैं कि ब्रह्म का वर्णन करना असम्भव है, अर्थात् ब्रह्म वर्णनातीत है, हम केवल वही कह सकते हैं जो वह नहीं है। शंकराचार्य (वे० सू० ३।२।१७) ने बाष्कलि एवं बाध्व के संवाद का उदाहरण दिया है, जहाँ बाध्व ने मौन रहकर ब्रह्म की विशिष्टता प्रकट की है। बाष्कलि ने कहा,-'महोदय, मुझे ब्रह्म के विषय में बताये;' तब बाध्व मौन रह गये; जब वाष्कलि ने दूसरी एवं तीसरी बार भी पूछा तो बाध्व ने उत्तर दिया,--'हम वास्तव में कह रहे थे ; किन्तु तुम समझ नहीं रहे हो; यह आत्मा उपशान्त है (बिना किसी क्रिया वाला)।' शंकराचार्य ने पर-ब्रह्म एवं अपर-ब्रह्म (दैहिक ईश्वर) में अन्तर बताया है :--'जहां नामों एवं रूपों से, जो अविद्या से उत्पन्न होते हैं, ब्रह्म के सम्बन्ध को छोड़ दिया जाता है (अर्थात् उस सम्बन्ध को ठीक नहीं माना जाता अथवा उसका त्याग किया जाता है) और ब्रह्म को अभावात्मक ढंग से, यथा अस्थूल आदि शब्दों से व्यक्त किया जाता है तो वहाँ 'पर ब्रह्म' है (अर्थात् उसका अर्थ है पर ब्रह्म), किन्तु जहाँ ऐसे वचन हैं, यथा--'वह मनोमय है, प्राणरूप है, शरीररूप है, प्रकाश रूप है, जिसके विचार सत्य हैं, जिसका स्वभाव आकाश के समान (सब स्थानों में उपस्थित) है, जो सब कुछ की सृष्टि करता है... आदि,' वहाँ ब्रह्म का उल्लेख उपासना के लिए है और वह अपर ब्रह्म है
. २३. किं पुनः परं ब्रह्म किमपरमिति। उच्यते । यत्राविद्याकृतनामरूपादिविशेषप्रतिषेधादस्थूलादिशब्दब्रह्मोपदिश्यते तत्परम् । तदेव यत्र नामरूपादिविशेषेण केनचिद्विशिष्टमुपासनायोपदिश्यते 'मनोमयः प्राणशरीरो भारूपः' (छा० उप० ३३१४१२) इत्यादिशब्दैस्तदपरम् । भाष्य (वे० सू० ४।३।१४) । एवमेकमपि ब्रह्मापेक्षितोपाधिसम्बन्धं निरस्तोपाधिसम्बन्धं चोपास्यत्वेन ज्ञेयत्वेन च वेदान्तेषूपदिश्यत इति । शंकराचार्य (वे० सू० १११११२)। यह द्रष्टव्य है कि याज्ञवल्क्य को ब्रह्म-सम्बन्धी व्याख्या में 'नेति नेति' शब्द चार बार आये हैं (ब० उप० ४।२।४, ४।४।२२, ४।५।१५, ३।६।२६) । पर ब्रह्म को देश, काल एवं कारण-नियम से अतीत माना गया है।
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