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अध्याय ३३
तर्क एवं धर्मशास्त्र याज्ञवल्क्यस्मृति (१३) ने न्याय (तर्कशास्त्र)' को चौदह विद्याओं में परिगणित किया है और उसे धर्म के ज्ञान का एक साधन माना है। मिताक्षरा (याज्ञ० पर भाष्य) ने न्याय को 'तकविद्या' की संज्ञा दी है और कहा है कि चौदह विद्याएँ धर्म के हेतु (साधन) हैं।
न्यायसूत्र एवं वैशेषिक सूत्र दोनों ने यह स्वीकार किया है कि दोनों दर्शनों के पदार्थों के सम्यक् ज्ञान से निःश्रेयस की उद्भूति होती है।
'तक' शब्द के आरम्भिक प्रयोगों में एक प्रयोग कठोपनिषद् (२६) का भी है--'(आत्मा का) यह ज्ञान (केवल) तक से ही नहीं प्राप्त किया जा सकता, इसके पूर्व के मन्त्र में आया है कि आत्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है और केवल अनुमान या तक से नहीं समझा जा सकता ('अणीयान् ह्यतर्कयमणुप्रमाणात्') । और देखिए शब्द 'मन्त्रव्यः' ('आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोत्रव्यो मन्तव्यः', बृ० उप० २।४१५ एवं ४।२६) जिसे भाष्य (वे० सू० १३१०२) में विरोधी ने एवं शंकराचार्य (वे० सू० २।११४) ने तर्क के अर्थ में लिया है। मैत्रा० उप० (२०१८) ने तर्क को योग के अंगों में सम्मिलित किया है (प्राणायामः प्रत्याहारो ध्यानं धारणा तर्कः समाधिः षडंग इत्युच्यते योगः।) और उसमें यह भी आया है कि वाणी, मन एवं प्राण के निरोध से व्यक्ति तर्क की सहायता से ब्रह्म को देखता है (६।२०)। गौतमधर्मसूत्र (२।२३-२४) में आया है ---'न्याय की प्राप्ति के लिए तक एक उपाय (साधन) है' (न्यायाधिगमे तर्कोऽभ्युपायः । तेनाम्यूह्य यथास्थानं गमयेत्)। यक्ष ने युधिष्ठिर से जितने प्रश्न पूछे हैं, उनमें एक यह है-'तर्क अस्थिर होता है, वह अप्रतिष्ठ है, उससे निष्कर्ष नहीं प्राप्त होते, वैदिक वचन (आपस में) एक-दूसरे से भिन्न हैं (उनमें अन्तर है), कोई ऐसा मुनि नहीं है जिसकी सम्मति (अन्य लोगों या मुनियों द्वारा प्रामाणिक मानी जाय; धर्म का तत्त्व गहा में पड़ा हआ है (वह अंधकार से आवत है और स्पष्टता एवं सुगमता से नहीं जाना जा सकता). वही मार्ग है (जिसके द्वारा अग्रसर होना चाहिए) जिसके द्वारा अधिकांश लोग चलें' (वनपर्व ३१३।११७, चित्रशाला प्रेस संस्करण-तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः नको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः॥)। उपसंहार के अन्त में मनुस्मृति में आया
१. पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रांगमिश्रिताः । वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ याज्ञ० (१३३) कुछ लोग 'पुराणतर्कमीमांसा...' ऐसा पढ़ते हैं।
२. अथातो धर्म व्याख्यास्यामः । यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः । द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधयंबंधाभ्यां तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुः । वैशेषिकसूत्र (१३१२२ एवं ४); प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्त-सिद्धान्तावयवतर्क-निर्णयवादज्ञानवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमः । न्यायसूत्र (१११११) । निःश्रेयस ('अचतुर०', एक लम्बा सूत्र) शब्द पाणिनि एवं कौषीतक्युपनिषद् (२।१४ एवं ३३२) में आया है।
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