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योग एवं धर्मशास्त्र चेतनता के विकास के द्वारा आगे बढ़ना ही है, आरम्भ भारत से ही हो सकता है और, यद्यपि क्षेत्र को सार्वभौम होना ही है, केन्द्रीय क्रान्ति यहीं पायी जा सकती है।'
निःसन्देह ऊपर की संवेगात्मक एवं ललित शब्दों में कही गयी बातें भारतीयों के लिए गर्व करने योग्य हैं, किन्तु यह सम्भव है कि श्री अरविन्द की ये गर्वोक्तियाँ अधिकांश अभारतीय जनता को हास्यास्पद लग सकती हैं। इसमें संदेह नहीं कि भारत १३वीं शती से लगभग सात शतियों तक बाह्य विजेता लोगों से पदाक्रान्त होता रहा और उसका मानमर्दन होता रहा (किन्तु कुछ भागों में अल्पकाल के लिए भारतीय राज्य अवश्य संस्थापित थे, यथा विजयनगर साम्राज्य या मराठों के अन्तर्गत लगभग १५० वर्षों तक तथा पंजाब में लगभग ५० वर्षों तक महाराज रणजीत सिंह का राज्य) । अब भारतीय पाठक स्वयं इसका पता लगायें कि प्रथम सपने को छोड़कर (भारतीय स्वतन्त्रता ६) श्री अरविन्द के अन्य कौन-से सपने पूरे हुए। क्या स्वतन्त्रता की प्राप्ति के इतने वर्षों के उपरान्त भारत आध्यात्मिकता के क्षेत्र में कोई विकास कर सका है ? क्या सामान्य जनता के मन में इस प्रकार की भावना घर कर सकी है? क्या विभिन्न जातियों एवं राष्ट्रों के बीच भावनात्मक एकता का कोई चिह्न दृष्टिगोचर हो रहा है? क्या निकट भविष्य में इसकी कोई आशा है ? या संपूर्ण संसार विनाश के कगार पर खड़ा है ?
__ श्री अरविन्द ने मानव जाति की एकता की स्थापना के लिए आन्तरिक एकता एवं उद्देश्य पर बल दिया है। उनके मतानुसार यह अभिरुचियों के बाह्य सम्मिलन से सम्भव नहीं है। २४ वर्षों तक श्री अरविन्द ने बाह्य जगत से अपने को खींच लिया था और वर्ष में केवल चार बार लोगों को दर्शन देते थे। उन्होंने ग्रन्थों के प्रणयन के अतिरिक्त मानव जाति की एकता के लिए क्या किया, यह स्पष्ट नहीं हो पाता और न उन नर-नारियों में, जो उनके नेतृत्व में पांडिचेरी में एकत्र हुए, किसी ने महत्त्व का कोई पद सुशोभित किया और न अपने गुरु द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर शक्तिशाली ढंग से सफलतापूर्वक चलने का प्रयत्न ही किया और न आज कोई अपने गुरु के उस कार्य को कर रहा है, जिसका उन्होंने स्वप्न देखा था और जो आज भी अनारम्भित एवं अपूर्ण पड़ा हुआ है । अपनी साधना के विषय में श्री अरविन्द ने लिखा है-'मैंने अपना योग सन् १६०४ में आरम्भ किया । मेरी साधना ग्रन्थों पर आधृत नहीं थी, वह उन व्यक्तिगत अनुभूतियों पर आधृत थी जो अन्तर से उमड़ कर मेरे चतुर्दिक् छा गयीं. . . यह तथ्य है कि मैं जेल में विवेकानन्द की वाणी एक पक्ष तक निरन्तर सुनता रहा' (पृ० १३१, श्री दिवाकर द्वारा लिखित 'महायोगी का जीवन-चरित')।
श्री अरविन्द ने अपने भाई वारीन्द्र को ७ अप्रैल, १६२० में एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने प्राचीन योगों के मुख्य दोषों को बताया था। उनके अनुसार 'प्राचीन योग में केवल मन, बुद्धि एवं आत्मा की बात थी, लोग मानसिक धरातल पर ही आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त करके सन्तुष्ट हो जाते थे। उनके मत से मन केवल आंशिक ज्ञान ही प्राप्त कर सकता है, यह केवल अंशों का ही परिज्ञान कर सकता है न कि सम्पूर्ण का । मन केवल समाधि, मोक्ष या निर्वाण द्वारा ही असीम एवं सम्पूर्ण वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, किसी अन्य साधन से नहीं । हाँ, कुछ लोग इस प्रकार का मोक्ष अवश्य प्राप्त करते हैं जिसे केवल अन्ध मार्ग या द्वार कहा जा सकता है। तो इसकी क्या उपयोगिता है ? किन्तु भगवान् मानव को इस योग्य
८६. स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त संयुक्त भारत की कल्पना टूट-फूट कर छिन्न-भिन्न हो गयी। देश का विभाजन हो गया। पाकिस्तान एक नया राष्ट्र बन गया जो निरन्तर भारत के लिए शिर-पीड़ा बना हुआ है। .
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