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धर्मशास्त्र का इतिहास उन्हें ग्वालियर के श्री लेले से कुछ सहायता प्राप्त हुई, वे जब पांडिचेरी में आये, उन्हें भीतर से साधना करने का एक कार्यक्रम प्राप्त हुआ, उन्हें अन्य लोगों को सहायता देने में कोई अधिक सफलता नहीं प्राप्त हो सकी और जब माता (मीरा रिचर्ड) सन् १६२० में आश्रम में आयीं, उन्हें इनकी सहायता से अन्य लोगों को सहायता देने की विधि का पता चला। एक अन्य बात यह है कि वे योग पर लिखने वाले बहुत से चमत्कारी संस्कृत लेखकों की शिक्षाओं को अस्वीकार करते हैं, यथा योगी को नारियों से दूर रहना चाहिए (कूर्मपुराण २।११।१८, योगियाज्ञवल्क्य ११५५, लिंगपुराण १।८।२३), जब कि उनके चरित-लेखक श्री दिवाकर का कथन है कि अरविन्द आश्रम की स्थापना २४ नवम्बर, सन् १६२६ में हुई और माताजी (मदर) पर ही उसका सम्पूर्ण भार तब से अब तक रहा है और श्री अरविन्द ने तब से सभी प्रकार के सम्पर्क तोड़ दिये और उनसे केवल मदर के द्वारा सम्पर्क स्थापित हो सकता था (पृ० २५७) । इस बात में श्री अरविन्द ने एक पृथक् ही नयी रीति निकाली और प्रस्तुत लेखक तथा अन्य सामान्य लोगों की दृष्टि में उन्होंने इस प्रकार प्राचीन योग द्वारा चलाये गये मार्ग का उल्लंघन किया और 'मुरारेस्तृतीयः पन्थाः' नामक विख्यात उक्ति के समान बन गये। - श्री अरविन्द रहस्यवादी हैं, रहस्यवादियों की अनुभूतियाँ विलक्षण होती हैं और उनकी अपनी, सामान्य शब्दों एवं वाणी की पद्धति से वे उन लोगों पर व्यक्त नहीं की जा सकतीं, जो इस प्रकार की अनुमतियों से परिचित नहीं हैं। श्री अरविन्द नवम्बर सन् १६२६ से अपनी महासमाधि की तिथि ५ दिसम्बर, सन् १९५० तक एकान्तसेवी बने रहे, वर्ष में वे केवल चार दिन दर्शन देते थे, यथा-अगस्त १५ (जन्म-दिन), नवम्बर २४ (उनके शब्दों में उनकी विजय का दिन); फरवरी २१ (मदर का जन्म दिन) एवं अप्रैल २४ : (वह दिन जब मदर आश्रम में पधारी थीं) (देखिए श्री दिवाकर कृत 'लाइफ आव महायोगी, पृ० २६५) । अरविन्दजी पांडिचेरी में ४० वर्षों तक रहे । उनका आश्रम समन्वित योग की शिक्षा का एक केन्द्र बन गया और उनके लिए घर बन गया जो वास्तविक जीवन एवं प्रकाश की खोज में थे और उनकी शिक्षाओं से अभिप्रेरित नर-नारियों के लिए एक तीर्थस्थान बन गया ।
_अगस्त १५, सन् १६४७ को जब भारत स्वतन्त्र हो गया (वह तिथि उनकी जन्मतिथि भी थी) तो उन्होंने एक लम्बा वक्तव्य प्रकाशित किया, जिसमें उनकी युवावस्था के सपने व्यक्त किये गये थे और कहा गया था कि अब वे सफल हो रहे हैं अथवा सफलता के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं। उन्होंने कहा--'मेरे सपनों में प्रथम था क्रान्तिकारी आन्दोलन जो एक स्वतन्त्र एवं संयुक्त भारत का निर्माण करेगा । दूसरा सपना यह था कि एशिया के लोग मुक्त होंगे और एशिया मानव-संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण योग देगा। तीसरा सपना यह था कि एक विश्व-संघ का निर्माण होगा जो सम्पूर्ण मानव-समाज के लिए अपेक्षाकृत सुन्दर, प्रकाशमय एवं भद्र जीवन का बाह्य आधार सिद्ध होगा। कोई विप्लव खड़ा हो सकता है, वह विरोध खड़ा कर सकता है और जो कुछ हो रहा है उसे विनष्ट भी कर सकता है किन्तु तब भी अन्तिम परिणाम निश्चित है। एकता प्रकृति की आवश्यकता है और है एक अवश्यम्भावी गति । एक अन्य सपना था, विश्व के लिए भारत द्वारा आध्यात्मिक उपहार, जिसका आरम्भ हो चुका है। भारतीय आध्यात्मिकता का यूरोप एवं अमेरिका में प्रवेश सतत उन्मेषशाली गति से हो रहा है। अन्तिम सपना था विकास में एक चरण-चाप जो मानव को उच्च से उच्चतर चेतना की ओर ले जायेगा और उन समस्याओं का समाधान उपस्थित कर देगा जिन्होंने उन्हें तब से व्यामोहित एवं परेशान कर रखा था जब से उन्होंने व्यक्तिगत पूर्णता एवं पूर्ण समाज के विषय में चिन्तन करना एवं सपना देखना आरम्भ किया था । यहाँ भी, यदि विकास होना ही है, क्योंकि इसे आत्मा एवं आन्तरिक
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