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विश्व-विद्या
यद्यपि धर्मशास्त्रकारों ने एक मत से सार्वभौम रूप से ईश्वर के अस्तित्व के विषय में अपनी स्वीकृति दी थी, तथापि ईश्वर के नामों, स्वरूप एवं उपाधियों के विषय में विभिन्न मत थे। ऐसी ही बात पश्चिम में भी थी। अधिकांश लोगों ने यही माना कि ईश्वर एक है, उसके बराबर कोई अन्य नहीं, वह आध्यात्मिक (दैहिक नहीं, यद्यपि बहुत-से लोगों ने उसे शिव या विष्णु या देवी के रूप में पूजा), निर्विकार (निर्विकल्प, अपरिवर्तनीय), सर्वगत (सर्वात्मक, सर्वव्यापी), सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, स्रष्टा, पूत, सत् एवं न्यायकर्ता आदि है। ईश्वर के विश्वास के विषय में कठिन प्रश्न उठते हैं। दो-एक का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है क्या ईश्वर पूर्णरूप से, जैसा कहा गया है, वैसा ही सर्वज्ञ है, अर्थात् वह जो चाहे कर सकता है या कुछ बातें वह नहीं भी कर सकता है ? दूसरा प्रश्न यों है-'क्या उसके अतिरिक्त जितनी वस्तुएँ हैं वे सब उसके द्वारा निर्मित हुई हैं या कुछ ऐसी भी वस्तुएँ हैं जो ईश्वर के समान ही चरम या अनन्त हैं ? सभी धर्म कठिनाइयों से आपन्न हैं अतः धर्म विश्वास पर ही आधृत है।
यद्यपि ऋग्वेद विभिन्न देवों (यथा-अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण, सोम) के कृत्यों एवं स्तुतियों से परिपूर्ण है, तथापि इसमें कुछ ऐसे स्तोत्र एवं मन्त्र हैं जो यह प्रकट करते हैं कि 'मौलिक सिद्धान्त' अर्थात् मूल तत्त्व या बीज तत्त्व केवल एक ही है, जो अपने में से ही विश्व की सृष्टि करता है, उसमें प्रविष्ट होता है और उसे प्रेरित करता है। ऋ० (१।१६४१४६) में ऋषि ने कहा है-'विज्ञ एक को (सिद्धान्त या 'प्रिंसिपुल' अर्थात् मूल तत्त्व या बीज तत्त्व को) कई नामों से कहते हैं, वे उसे अग्नि, यम, मातरिश्वा (वायु देव) के नाम से पुकारते हैं।' यह कोई अकेला मन्त्र नहीं है। इसी के समान कई अन्य मन्त्र भी हैं। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद (८1५८।२, वालखिल्य स्तोत्रों में एक) में आया है-'एक ही अग्नि कई स्थानों में प्रज्ज्वलित होती है, एक ही सूर्य सम्पूर्ण संसार में चमकता है, एक ही उषा सम्पूर्ण विश्व के ऊपर ज्योतित होती है और एक ही (मूल तत्त्व या आत्मा) यह सब हुआ (अर्थात् एक ही से इतने प्रकट हुये)।' ऋ० (१०।६०।२) में ऐसा घोषित है : 'जो हो चुका है, और जिसका भविष्य में अस्तित्व होगा (दोनों) यह सम्पूर्ण विश्व, वास्तव में, केवल पुरुष है।' ऋ० (२।११३-७) में अग्नि को इन्द्र, विष्णु, ब्रह्मा, वरुण, मित्र, आर्यमा, त्वष्टा, रुद्र, द्रविणोदा, सविता एवं भग कहा गया है। ये सभी श्लोक यह स्थापित करते हैं कि अन्ततोगत्वा यह अनेकता केवल शब्दों का खेल है, केवल नाम है ('वाचारम्भणं विकारो नामधेयम्', जैसा कि छा० उप० ६।११४ में आया है) तथा एकता ही केवल वास्तविकता है और ऐसा प्रकट होता है कि उपनिषदों की मूल शिक्षा का बीज ऋग्वेद में विद्यमान है।
ऋग्वेद के दसवें मण्डल (१०।७२, १०।८१ एवं ८२, १०।६०; १०।१२१; १०।१२६) में विश्व की उत्पत्ति के विषय में कई स्तोत्र हैं। स्थानाभाव से हम सबका उद्धरण नहीं दे पायेंगे, केवल कुछ महत्वपूर्ण वचन ही उल्लि
७. प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं साहित्यकार श्री जींस ने अपने ग्रन्थ 'मिस्टीरियस युनिवर्स' (कैम्ब्रिज, १६३१) में कहा है कि पश्चिम में इस विश्व का निर्माता (विधायक) एक शुद्ध गणितज्ञ के समान प्रकट होता है' (पृ० १३४)।
आइंस्टीन ने, जो आधुनिक काल के सबसे बड़े वैज्ञानिक कहे जाते रहे हैं, न्यूयॉर्क के रब्बी एच् एस० गोल्डस्टीन (जिसने तार से पूछा था : 'क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं ?) को लौटते तार से उत्तर दिया था कि 'मैं स्पिनोजा के ईश्वर में विश्वास करता हूँ, जो अपने को पदार्थों की समरसता में अभिव्यक्त करता है, उस ईश्वर में नहीं जो मनुष्यों के कर्मों की नियति से अपना सम्बन्ध रखता है। अपने ग्रन्थ 'आउट आव माई लेटर इयर्स' में उन्होंने मत प्रकाशित किया है कि विज्ञान एवं धर्म का प्रमुख संघर्ष व्यक्तिगत ईश्वर की धारणा से सम्बन्धित है। और देखिए, ई० डब्ल० मार्टिन द्वारा सम्पादित विस्काउण्ट सैमुयल का भाषण 'इन सर्च आव फेथ' (पृ० ७८), जहां विश्व एवं ईश्वर के सम्बन्ध के विषय में चार मत प्रकाशित किये गये हैं।
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