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विश्व-विद्या
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उपनिषदों ने परम ब्रह्म को भूतों (जीवों या तत्त्वों या दोनों) का' स्रष्टा, पोषक एवं संहारक माना है। उदाहरणार्थ, तैत्तिरीयोपनिषद् (३।१, भृगु अपने पिता वरुण द्वारा उपदेशित किये गये हैं) में आया है २-'यह जानने की इच्छा करो कि किससे सभी भूत उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न हो जाने के उपरान्त किसके द्वारा वे जीते हैं. (पालित-पोषित) होते हैं तथा किसमें वे पुनः लौट जाते हैं और उसमें समा जाते हैं; वह ब्रह्म है।' यह वह आधारभूत वचन है जिस पर वे० सू० (११११२, 'जन्माद्यस्य यत:') आधृत है। इसका अर्थ है 'जिससे इस (विश्व) का जन्म (सष्टि, जीवन एवं विलयन) होता है' (वही ब्रह्म है)। तैत्तिरीयोपनिषद् (२।१) में पुन: आया है--'इस आत्मा से आकाश निकला, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथिवी, पृथिवी से ओषधियाँ (वृक्ष-पौधे),औषधियों से भोजन तथा भोजन से मनुष्य।' छान्दोग्योपनिषद् (३।१४।१) में भी आया है -'यह सभी, वास्तव में, ब्रह्म है। मनुष्य को, मन का नियन्त्रण करके उस (विश्व) पर, उससे उत्पन्न होता हुआ समझ कर, उसी में (ब्रह्म में) समाप्त हुए तथा साँस लेते हुए, ध्यान करना चाहिए।' यह वे० सू० (११२।१, सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात्) का आधार है। यहाँ ब्रह्म की तीन उपाधियाँ हैं : विश्व का स्रष्टा, पालक एवं संहारक।
बादरायण के वेदान्तसूत्र में आगे आया है कि ब्रह्म के सत्य ज्ञान के लिए शास्त्र ही उपकरण हैं (शास्त्रयोनित्वात्, वे० सू० १।१।३) । इसके विरोध में कि वेद का सम्बन्ध कृत्यों (क्रिया-संस्कारों) से है, इसके कुछ भाग केवल क्रियाओं की प्रशंसा के लिए हैं, वैदिक मन्त्र यज्ञकर्ता को केवल यज्ञ के कतिपय अंगों का स्मरण दिलाते हैं, अत: वेदान्त वचनों का या तो कोई उद्देश्य ही नहीं है या अधिक-से-अधिक वे यज्ञकर्ता के आत्मा के विषय में सचना दे देते हैं या पूजित होने वाले देवता के बारे में बतला देते हैं; वेदान्तसूत्र (१।१।४, तत्तु समन्वयात्) द्वारा उत्तर दिया जाता है, जिसका अर्थ यह है कि वेदान्त वचन इस विषय में स्वीकार करते हैं कि उनका तात्पर्य है उस ब्रह्म की स्थापना करना जो वे० सू० (१।१।२) में इस विश्व के स्रष्टा, पालक एवं संहारकर्ता के रूप में परिकल्पित है और जिसका स्वरूप वैसा है और जो सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है।
१६४२) में मत उपस्थित किया है कि बहुत-से लोग इस विश्वास को छोड़ रहे हैं कि यह विश्व एक व्यवस्थित अस्तित्व है और बहुत-से लोगों ने मानव-जीवन के उद्देश्य के विश्वास को त्याग दिया है (पृ० १३)। प्रयोजनवादी अथवा उद्देश्यवादी तर्क उस व्यक्ति के विश्वास को शक्तिशाली बना सकता है, जो ईश्वर में पहले से विश्वास करता है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह उस व्यक्ति में, जो वैसा मत नहीं रखता, अर्थात् जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता, ईश्वर के प्रति विश्वास नहीं उत्पन्न कर सकता। एबेल जोंस ने अपने ग्रन्थ 'इन सर्च आव ट्रय' (१६४५) में कहा है कि ईश्वर के अस्तित्व के विषय में जो तीन प्रमुख तर्क उपस्थित किये जाते हैं वे हैं-विश्वविद्याविषयक (कॉस्मोलॉजिकल), हेतुविद्याविषयक (टेलियोलॉजिकल) एवं सत्त्वविद्याविषयक (ऑण्टॉलॉजिकल)।
२. यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद् विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ।। ते० उप० (३३१)।
३. सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत । छा० उप० (३।१४।१)। ब्रह्म के लिए प्रयुक्त 'तज्जलान्' शब्द विलक्षण है। शंकराचार्य ने इसे इस प्रकार समझाया है : 'तज्जलाविति । तस्माद् ब्रह्मणो जातं तेजोवन्नादिक्रमेण सर्वम् । अतस्तज्जम् । तथा तेनैव जननक्रमेण प्रतिलोमतया तस्मिन्नेव ब्रह्मणि लीयते तदात्मतया शिलष्यते इति तल्लम् । तथा तस्मिन्नेव स्थितिकाले अनिति प्राणिति चेष्टते इति । और देखिए छा० उप० (११) : सर्वाणि हवा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्त आकाशं प्रत्यस्तं यन्त्याकाशो देवेभ्यो ज्यायान् । आकाशः परायणम् ।
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