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धर्मशास्त्र का इतिहास वही अतार्किक एवं अनुचित-सा प्रतीत होता है। देखिए रॉबर्ट विजेज़ कृत 'टेस्टामेण्ट आव ब्यूटी' (बुक १, पंक्तियाँ ४६५-४७०), जहाँ जो उचित अथवा तर्कसंगत है उस पर लिखा गया है। करोड़ों लोगों ने फलों को पृथिवी पर टपकते हुए देखा था किन्तु यह न्यूटन की ही प्रज्ञा एवं तर्क था जिसके द्वारा उन्होंने आकर्षण के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर दिया।
बृहदारण्यकोपनिषद् (११५३३) ने संशय (अथवा सन्देह) को मन की एक उचित वृत्ति कहा है, यथा-- 'काम: संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाश्रद्धाधुतिरधृति हीींर्भीरेत्येतत् सर्वं मन एव', अर्थात् इच्छा, संकल्प, संदेह, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य (स्थिरता), अधैर्य, लज्जा, समझ (धी) एवं भय-ये सभी मन के स्वरूप हैं। ऋग्वेद (२।१२।५) ने भी इन्द्र के विषय में संशय करने वालों की ओर संकेत किया है ('उतेमाहुनॆषोस्तीत्येनम्')। कठोपनिषद् में नचिकेता का कथन है-"जब मनष्य मर जाता है, वहाँ सन्देह है, कुछ लोग कहते हैं, 'वह (आत्मा) रहता है', अन्य लोग कहते हैं, 'वह रहना समाप्त कर देता है", इस प्रकार कहकर नचिकेता यम से प्रार्थना करते हैं कि वे (यम) उसके तीसरे वरदान के रूप में इसी सन्देह को दूर करें।
डेकार्ट का कथन है कि केवल एक ही सत्य सन्देहातीत है, यथा 'कॉगितो इर्गो सम', अर्थात 'मैं विचार करता हूँ, अत: मैं हूँ।' १८वीं एवं १५वीं शतियों में, जहाँ तक विचारशील व्यक्तियों का सम्बन्ध है, यूरोप में तर्क एवं विकास के प्रति असीम श्रद्धा पायी जाती थीं। किन्तु दो महायुद्धों के (विशेषत: द्वितीय के) कारण एवं उनके परिणामों के फलस्वरूप दो शक्तिशाली साम्यवादी देशों के अभ्युत्थान ने तर्क एवं आचार-शास्त्र द्वारा निर्देशित विकास के प्रति श्रद्धा को धक्का पहुँचाया है, व्यक्ति की प्रतिष्ठा (अथवा माहात्म्य) एवं समानता के प्रति श्रद्धाभावना का ह्रास हुआ है और उस पर कतिपय क्षेत्रों से आक्रमण हो रहा है और इस मत को कि शक्ति से अधिकार की उत्पत्ति होती है या शक्ति ही अधिकार है, प्रधानता मिलती जा रही है।
उपनिषदों का कथन है कि सत्य वेदान्तवादी धारणा के लिए नैतिकता की सन्नद्धता आवश्यक है। बृह० उप० में आया है-'अत: जो शान्ति की प्राप्ति, इन्द्रिय-निग्रह, विषय वासनाओं से दूर हट जाने, सभी प्रकार के द्वन्द्वों (शीत एवं उष्णता आदि) को सह लेने के उपरान्त इसे (आत्मा को) जानता है, वह आत्मा में आत्मा देखता है, सभी वस्तुओं को आत्मा समझता है।' कठोपनिषद् (२।२४) का कथन है-'जिसने दुष्कर्म करना नहीं छोड़ा है, जो शान्त नहीं है, जिसने अपने मन को एकाग्र नहीं किया है और न उसे शान्त ही किया है, वह सत्य ज्ञान से आत्मा का परिज्ञान नहीं कर सकता।' प्रश्नोपनिषद् (१।१६) में आया है-'जो कुटिलता, असत्य एवं वञ्चनापूर्ण आचरण से मुक्त हैं वे ब्रह्म के पवित्र लोक की प्राप्ति करते हैं ।' श्वेताश्वतरोपनिषद् (६।२२) में आया है--'यह अत्यन्त निगूढ़ वेदान्त ज्ञान उस व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए जिसका मन अशान्त है अथवा जो अपना पुत्र या शिष्य नहीं है।' 'तत्त्वमसि' अर्थात् 'वह तुम हो' नामक मन्त्र प्रत्येक व्यक्ति को यह बताता है कि वह सभी मनुष्यों में आत्मा को देखे या जैसा कि गीता (६।२६-३०) में कहा गया है--'जो योगयुक्त है और आत्मा को ही सब कुछ समझता है और प्रत्येक वस्तु को आत्मा में अवस्थित मानता है, परमात्मा से विछुड़ नहीं सकता और न परमात्मा ही उसे छोड़ सकते हैं।' छान्दोग्योपनिषद् (३।१६।१) में मनुष्य को प्रतीक रूप में यज्ञ माना गया है और ( ३।१७।४ में) ऐसा आया है कि तप, दान, आर्जव ( अकुटिलता ), अहिंसा एवं सत्य दक्षिणा है।
उपर्युक्त उदाहरणों से यह व्यक्त होता है कि वेदान्त अपने सर्वोत्तम रूप में व्यक्तियों को शुद्ध नैतिकता का अत्युत्तम आश्रय प्रदान करता है। इसी शिक्षा के कारण बहुत-से मुनियों ने आश्रमों में इन गुणों की उपलब्धि की और प्राचीन काल में राजाओं एवं सामान्य लोगों द्वारा पूजित हुए थे, किन्तु मध्य काल में ऐसे मुनियों की कमी ।
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