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धर्मशास्त्र का इतिहास योगसूत्र के चौथे पाद में कैवल्य का विवेचन है-वह योगी जो समाधि तक की सारी अनुशासन सम्बन्धी क्रियाएँ कर चुका है और पुरुष एवं गुणों (सत्त्व, रज एवं तम) के अन्तर को भली भाँति समझ गया है, तीनों गुणों के प्रभाव से छुटकारा पा जाता है, क्योंकि वे (गुण) आत्मा के उद्देश्य की पूर्ति करके प्रधान (प्रकृति) में समाहित हो जाते हैं। यही कैवल्य है अथवा यही (कैवल्य) उस चेतना का द्योतक है जो स्वयं उपस्थित रहती है (और यहाँ तक कि सत्त्वगुण से भी सम्बन्धित नहीं रहती)।७७ यही स्थिति योगसूत्र (२।२५) में भी वर्णित है; उसमें आया है कि जब अविद्या अन्तर्भेद (विवेकज्ञान) करने से दूर हो जाती है तो जीवात्मा (जो प्रत्यक्षीकरण करने वाला है) गुणों के सम्पर्क में नहीं आता, यही स्थिति कैवल्य की है।७८ योगसूत्र (४।३४) में कैवल्य दो दृष्टिकोणों के आधार पर समझाया गया है। जब कोई पुरुष गुणों (जिनसे प्रकृति बनी रहती है) द्वारा किसी प्रकार प्रभावित होना बन्द कर देता है, क्योंकि वह पूर्णतया वृत्तिहीन हो गया रहता है, तो प्रकृति, जहाँ तक पुरुष का सम्बन्ध है, तटस्थ (केवल) हो जाती है। जब पुरुष को पूर्ण ज्ञान हो जाता है और वह गुणों से प्रभावित होना बन्द कर देता है तो वह 'चितिशक्ति' (केवल चेतनता) रह जाता है और केवल बच रहता है अर्थात् तटस्थ हो जाता हैं, यही कैवल्य के विषय में दूसरा दृष्टिकोण है। कैवल्य या मोक्ष की स्थिति में हम उसके लिए किसी आनन्द या परमसुख (सुखातिशय या प्रहर्ष) का निर्देश नहीं कर सकते, किन्तु हम केवल इतना कह सकते हैं कि वह चितिशक्ति (केवल या मात्र चेतनता) की अवस्था में है। उपनिषदों ने घोषणा की है कि ऐसी अवस्था में मुक्तात्मा में न तो सुख की और न दुःख की ही अनुभूति पायी जाती, ऐसे आत्मा को सुख या इसका विरोधी भाव स्पर्श तक नहीं करता, क्योंकि वह उस स्थिति में पहुंच गया रहता है जहाँ उसका शरीर से कोई सम्बन्ध (रुचि या लगाव) नहीं रहता। योग का आदर्श है जीवन-मुक्त हो जाना (अर्थात् जीवन एवं व्यक्तित्व को त्याग देना; इस विश्व के लिए मर जाना, भले ही शरीर कुछ काल तक चलता रहे)।
___ योग के आठ अंगों का अधिक या कम वर्णन कई पुराणों में हुआ है। देखिए अग्निपु० (अध्याय २१४-२१५ एवं ३७२-७६); भागवत०। (३।२८); कूर्म० (२।११); नरसिंह० (६१।३-१३, कल्पतरु, मोक्ष० पृ० १६४. १६५ में उद्धृत); मत्स्य ० (अध्याय ५२); मार्कण्डेय० (अध्याय ३६-४०, वेंक० संस्करण एवं ३६-४३ कलकत्ता संस्करण, इसमें लगभग २५० श्लोक हैं, जिनमें बहुत-से कृत्यकल्पतरू, मोक्ष० में, अपरार्क आदि द्वारा उद्धृत हैं); लिङग०;
७७. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति । योगसूत्र (४।३४); भाष्य है--'कृतभोगापवर्गाणां पुरुषार्थशून्यानां यः प्रतिप्रसवः कार्यकारणात्मकानां गुणानां तत्कैवल्यं, स्वरूपप्रतिष्ठा पुनर्बुद्धिसत्त्वानभिसम्बन्धात्पुरुषस्य चितिशक्तिरेव केवला, तस्याः सदा तथैवावस्थायां कैवल्यमिति ।' वाचस्पति ने 'प्रतिप्रसवः' का अर्थ 'स्वकारणे प्रधाने लयः' लगाया है।
७८. तस्य हेतुरविद्या । तदभावात्संयोगाभावो हानं तदृशः कैवल्यम् । यो० सू० (२।२४-२५) । तस्यादर्शनस्याभावाद् बुद्धिपुरुषसंयोगाभाव आत्यन्तिको बन्धनोपरम इत्यर्थः । एतद्धानम् । तदृशः पुरुषस्यामिश्रीभावः पुनरसंयोगो गुणरित्यर्थः । दुःखकारणनिवृत्तौ दुःखोपरमो हानं तदा स्वरूपप्रतिष्ठः पुरुष इत्युक्तम् । भाष्य । कैवल्य का अर्थ है 'एकाकिता', अर्थात् स्वयं अकेला रहना।
७६. अशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः। छा० उप० (८।१२।१); अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोको जहाति । कठ० (२।१२) । वेदान्तसूत्र का (४।४।२ मुक्तः प्रतिज्ञानात्) छा० उप० (८।१२।१) पर आधुत है।
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