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धर्मशास्त्र का इतिहास नहीं माना जायगा। महाभाष्य ने इसे बहुधा उदाहृत किया है, यथा-वार्तिक ४, पा० ६।१।२, वार्तिक १, पा० १।११४७, वार्तिक २, पा० ६।२।१। और देखिए मिता० (याज्ञ० ३।२५७) ।
तत्प्रख्यन्याय-० (१।४।४) 'तत्प्रख्यं चान्यशास्त्रम्', जिसका अर्थ है 'तस्य गुणस्य प्रख्यं प्रापर्क अन्यशास्त्रं यत्र भवति ।' तै० सं० (११५४६१) में हम पढ़ते हैं ‘अग्निहोत्रं जुहोति स्वर्गकामः ।' यहाँ पर अग्निहोत्र नाम (नामधेय) है एक कृत्य का (अग्नये होत्रं होमो यस्मिन्) न कि गुणविधि । देखिए मी० न्या० प्र० (पृ० ६४), धर्मद्वैतनिर्णय (पृ० ३), अर्थसंग्रह (पृ० ४ एवं २०)।
तव्यपदेशन्याय-जै० (११४१५) । उदाहरण है 'श्येनेनाभिचरन् यजेत ।' यहाँ पर 'श्येन' शब्द का प्रयोग 'श्येन' नामक कृत्य के लिए है, किन्तु यह कृत्य फुर्ती में श्येन (बाज) से मिलता-जुलता है । देखिए मी० न्या० प्र० (पृ० २३८), तेन व्यपदेश: उपमानम् । तदन्यथानुपत्त्येति यावत् ।
दण्डापूपन्याय या दण्डापूपिकनीति-धर्मशास्त्र ग्रन्थों में इसका बहुधा प्रयोग होता है। देखिए विश्वरूप, (याज्ञ० १।१४७ एवं ३।२५७); मिता० (याज्ञ० २।१२६); स्मृतिच० (व्यवहार, पृ० १४२, १४६, २४२, २४६, २८३, २६६, ३०१, ३१५, ३२६ ; दायभाग (१०।३०), दायतत्त्व (पृ० १७०) । व्य० म० (पृ० १३१) । दण्डापूपिकनीति के लिए देखिए अलंकारसर्वस्व, अर्थापत्ति (पृ० १६६) एवं उस पर की टीका जयरथ ।
दविहोमन्याय-जै० (८।४।१); तन्त्रवा० (पृ० ११५, ज० ११२।७ पर); मी० न्या० प्र० (पृ० १४६)। सामासिक प्रयोग में 'होम' मुख्य (प्रधान) शब्द है और 'दवि' अप्रधान (उपसर्जन) शब्द है। अत: कृत्य का नाम दविहोम है।
दशहरान्याय-देखिए भवदेव का प्रायश्चित्तप्रकरण (पृ० १८); प्राय० वि० (पृ० ८१); शुद्धितत्त्व (पृ० २४०-२४१) । ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को एक व्रत होता है, जिसका नाम दशहरा है । क्योंकि यह दस पापों को दूर करता है। न्याय यह कहता है कि कुछ बातों में एक के सम्पादन मात्र से कई फलों की प्राप्ति होती है। ___ दृष्टं प्रयोजनमुत्सृज्य न शक्यमदृष्टं कल्पयितुम् ।
दृष्टे फले अदृष्टफलकल्पना अन्याय्या । दृष्ट सति अदृष्टकल्पनाऽन्याय्या। दृष्ट संभवत्यदृष्टस्यान्याय्यत्वम् ।
देखिए शबर (जै०६।३।३, पृ० १७४५, १०।२।२३, पृ० १८३५ एवं १०।२।३४, पृ० १८३८); मी० न्या० प्र० (पृ० २०१; एकादशीतत्त्व (पृ० ८६); भामती (वे० सू० ३।३।१४)। . देहलोदीपन्याय--देहली पर रखा दीपक घर के भीतर एवं बाहर दोनों ओर प्रकाश करता है । यह निम्नलिखित 'प्रसाददीपन्याय' के समान ही है। 'प्रदीपवत्' जै० (११।१।६१) में आया है; देखिए शबर (जै० ११।१।६१), व्य० म० (पृ० १४६), जहाँ याज्ञ० (२।१३६) की व्याख्या में इस न्याय की ओर संकेत है ।
द्वयोः प्रणयन्तिन्याय-जै० (७।३।१६-२५); मिता० (याज्ञ० २।१३५); दायभाग (१११५।१६, पृ० १६४) एवं व्य० प्र० (पृ० ५००-५०२ एवं ५३५) ।
धेनुकिशोरन्याय-जै० (७।४।७, जहाँ 'यथा धेनुः किशोरेण' आया है); शबर ने इसकी स्पष्ट व्याख्या की है। 'धेनु' का सामान्य अर्थ होता है 'गाय', किन्तु 'किशोर' का अर्थ है बछेड़ा (घोड़े का बच्चा, अश्वशावक), अत: 'कृष्णकिशोरा धेनुः' में 'धेनु' का अर्थ है 'अश्वा' (घोड़ी)।
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