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धर्मशास्त्र का इतिहास
वह वास्तव में अद्वैत है, जिस पर पश्चात्कालीन सांख्य के कुछ समान सिद्धान्त बैठा दिये गये हैं, जिससे सृष्टि आदि की व्याख्या की जा सके ।२२ शान्तिपर्व (३०६।५६-६६, चित्रशाला प्रेस संस्करण-३१८१५८-६२) में विश्वावसु याज्ञवल्क्य से कहते हैं कि उन्होंने २५ तत्त्वों के बारे में जैगीषव्य, असित-देवल, वार्षगण्य (पराशर गोत्र के), भृगु पञ्चशिख, कपिल, शुक, गोतम, आष्टिषेण, गर्ग, नारद, आसुरि पुलस्त्य, सनत्कुमार, शुक्र एवं कश्यप से सुना है । पुनः ३३६।६५ (चित्रशाला सं० ३१८१६७) में आया है कि याज्ञवल्क्य ने सांख्य एवं योग दोनों पर पूर्ण रूप से अधिकार प्राप्त कर लिया था। शान्तिपर्व (३०६।४, चित्रशाला सं०) में आया है कि सांख्य एवं योग दोनों एक हैं ।२३
___महाभारत में पञ्चशिख का बहुधा उल्लेख हुआ है। शान्तिपर्व (३०७ वाँ अध्याय, कुल १४ श्लोक) में युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा है कि किस प्रकार कोई जरा या मृत्यु के ऊपर उठ सकता है, क्या तपों द्वारा या कृत्यों द्वारा या वैदिक अध्ययन द्वारा या रसायन प्रयोगों के द्वारा कोई इनके ऊपर उठ सकता है ? भीष्म
(२१११११-१३)। 'पुरुषावस्थं' का विग्रह करना चाहिए (जिससे कि इसका कुछ अर्थ निकल सके), यथा 'पुरुषे अवस्था' (अवस्थानं यस्य) या 'पुरुषे अवतिष्ठते इति' । 'मण्डलं कापिलं महत्' का अर्थ सर्वथा स्पष्ट नहीं हो पाता, किन्तु अहिर्बुध्न्यसंहिता (१२।१८-२६) के वचनों से ऐसा प्रकट होता है कि कपिल के सांख्यतन्त्र के सिद्धान्त दो मण्डलों में विभाजित थे, यथा प्राकृत एवं बैंकृत और दोनों में क्रम से ३२ एवं २८ विषय थे। 'सांख्यरूपेण संकल्पो वैष्णवः कपिलादृषः। उदितो यादशः पूर्व तादृशं शणु मेऽखिलम् ॥ षष्टिभेदं स्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने। प्राकृतं वैकृतं चेति मण्डले वे समासतः॥' टीकाकार अर्जुन मिश्र ने इसे यों समझा है--'कपिल का महान सिद्धान्त उनके (पञ्चशिख के) पास प्रकाश के पुञ्ज के रूप में आया और उनको परम सत्य का अर्थ बताया। किन्तु यह बहुत खींचातानी वाला अर्थ है । 'न्यबोधयत्' के कर्ता के तथा 'समासीनम्' (किसकी ओर संकेत करता है ? ) के विषय में शंका है। प्रस्तुत लेखक को ऐसा जंचता है कि अर्थ यों होना चाहिए--'पंचशिख उनके (जनक के) पास आये और उन्हें महान् कापिल मण्डल का ज्ञान दिया, जो सबसे बड़ा सत्य है, अव्यक्त है...आदि ।' संस्कृत वाक्य के नियम के अनुसार 'आगम्य' एव 'न्यबोधयत्' का कर्ता एक ही (अर्थात् पञ्चशिख) होना चाहिए। 'समासीन' जनक की ओर संकेत करता है। मिलाइए 'एकाक्षरं परं ब्रह्म' (मनु २।८३) एवं 'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन्' (गीता ८।१३)। अध्याय २११ का श्लोक १३ यह है-आसुरिमण्डले तस्मिन् प्रतिपेदे तदव्ययम्।' (अव्यय एकाक्षर-ब्रह्म की ओर संकेत करता है) । अतः मण्डल का अर्थ यों किया जाना चाहिए-सिद्धांतों का वह वत्त या मण्डल जो सर्वप्रथम कपिल द्वारा विवेचित
हुआ।
२२. पञ्चशिख ने जनक को जो ज्ञान दिया, उसकी स्थिति शान्तिपर्व में इस प्रकार व्यक्त है (२१२ । ५०-५१)-'न खलु मम तुषोऽपि दह्यतेऽत्र स्वयमिदमाह किल स्म भूमिपालः । इदममतपदं विदेहराजः स्वयमिह पञ्चशिखेन भाष्यमाणः ॥' मिलाइए शान्ति० (१७११५६) अनन्तं बत में वित्तं यस्य मे नास्ति किञ्चन । मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किञ्चन ॥ धम्मपद २००, उत्तराध्ययन सूत्र (१४) 'सुहं वसामो जीवामो जेसि मोत्थि किंचण । मिहिलाए डझमाणीए न मे डमइ किंचण ॥' इमां तु यो वेद विमोक्षबुद्धिमात्मानमविच्छति चाप्रमत्तः । न लिप्यते कर्मफलरनिष्टः पत्रं बिसस्येव जलेन सिक्तम् ॥ शान्ति० (२१२।४४)।
२३. यदेव योगाः पश्यन्ति तरसांख्यैरपि दृश्यते। एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ .
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