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योग एवं धर्मशास्त्र
एवं ११ में पाये जाते हैं । श्री दीवानजी अपने सम्पादित योग-याज्ञ० में उपर्युक्त तीनों निबन्धों में उद्धत श्लोक नहीं दिखा सके हैं। श्री भवतोष भटटाचार्य ने अपने निबन्ध (जर्नल आव गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टीच्यूट, जिल्द १५, १६५८ ई०, पृ० १३५-१४०) में यह दर्शाया है कि बंगाल के राजा बल्लालसेन (११५८११७६ ई०) ने अपने दानसागर में बहद्योगि-याज्ञ० से बहुत-से उद्धरण लिये हैं । लगता है, विश्वरूप (नवीं शती के पूर्वार्ध में) ने बहद्योगि-याज्ञ० का आधा श्लोक उद्धत किया है ('प्रभूते विद्यमाने तु उदके सुमनोहरे'
) और कहा है कि यह ग्रन्थ याज्ञवल्क्यस्मति के लेखक द्वारा प्रणीत है। इससे सिद्ध होता है कि बहद्योगियाज्ञ० बहुत प्राचीन ग्रन्थ है और वह सातवीं शती के पश्चात् का नहीं हो सकता, जब कि योगि-याज्ञ०
है और उसे ८वीं या वीं शती में रख सकते हैं। प्रस्तुत लेखक यह मानने को सन्नद्ध नहीं है कि बढद्योगि-याज्ञवल्क्य वही योगशास्त्र है जिसका उल्लेख याज्ञवल्क्यस्मति (३।११०) में याज्ञवल्क्य के योगशास्त्र के रूप में हुआ है, क्योंकि उसमें योग-सम्बन्धी सामग्री उतनी भी नहीं है जितनी कि स्मृति में पायी जाती है।
योगवासिष्ट एक विशद ग्रन्थ है । इसमें ३२००० श्लोक (३२ अक्षर का अनष्टप) हैं । यह निर्णयसागर प्रेस द्वारा दो खण्डों में आनन्दबोध की टीका के साथ प्रकाशित हआ है। यह एक समन्वयवादी ग्रन्थ है ।२५ इसमें अनासक्ति पर गीता के सिद्धान्तों, कश्मीर के त्रिक पद्धति के सिद्धान्तों, अद्वैत वेदान्त आदि का विवेचन है। इसमें समय-समय पर मिश्रण होता गया है। इसके काल एवं दार्शनिक महत्त्व पर मत-मतान्तर हैं। प्रस्तुत लेखक के मत से यह ग्रन्थ ११वीं एवं १२वीं शतियों के बीच में कभी लिखा गया होगा ।२६
अब हम संक्षेप में योगसूत्र की प्रमुख बातों का उल्लेख करेंगे । हम केवल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी विषयों का ही उल्लेख करेंगे ।
योग को चित्तवृत्तियों का निरोध कहा गया है, अर्थात् मन (चित्त) की चंचलताओं या क्रियाओं पर स्वामित्व स्थापन (नियन्त्रण) या उनको हटाना (यो० सू०--'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:' १।२) । इसे व्यास ने कुछ काल के लिए 'समाधि' माना है। मन की विभिन्न भूमियाँ पाँच हैं, यथा--क्षिप्त, मुग्ध (या मूढ), विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध । इसी सिलसिले में स्वामी कुवलयानन्द के एक निबन्ध (योगमीमांसा, जिल्द ६, संख्या ४) की ओर संकेत कर देना आवश्यक है । व्यास आदि भाष्यकारों ने पातञ्जल-योगसूत्र ३।२ को इस प्रकार पढ़ा है--'सर्वार्थतैकाग्रतयोः क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणामः ।' किन्तु स्वामीजी ने इसे अशुद्ध मानकर
२५. योगवासिष्ठ में योग पर कोई सिलसिलेवार आलेखन नहीं है, केवल यत्र-तत्र योग पर कुछ टिप्पणियाँ मात्र हैं। उदाहरणार्थ-उपशमप्रकरण (७८।४) में आया है-द्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो शानं च राघव । योगस्तवृत्तिरोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम् ॥
२६. देखिए डा० आत्रेय का निबन्ध 'फिलॉसफी आव योगवासिष्ठ' (थियोसॉफिक पब्लिशिंग हाउस, अड्यार, १६३६), डा० आत्रेय के अनुसार योगवासिष्ठ ६ठी शती का है। और देखिए प्रो० एस० पी० भट्टाचार्य (इ० हिस्टॉ० क्वार्टर्लो, जिल्द २४, पृ० २०१-२१२); डा० डी० सी० सरकार (वही, जिल्द २५, पृ० १३२-१३४) आदि ।
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