Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 287
________________ २७० धर्मशास्त्र का इतिहास है-'विज्ञ व्यक्ति को सदैव यमों का भी पालन करना चाहिए, केवल नियमों का ही पालन नहीं होना चाहिए; जो व्यक्ति केवल नियमों का पालन करता है और यमों का नहीं, वह पाप करता है (अर्थात् नरक में पड़ता है)।' इसका अर्थ यह नहीं है कि नियम वजित हैं, प्रत्युत यह कहा गया है कि यम नियमों से अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । शान्ति० (३२६।१५= ३३६।१६ चित्रशाला प्रेस संस्करण) में 'यम' एवं 'नियम' दोनों का उल्लेख हुआ है। कुछ स्मृतियाँ उन्हें योग के अंगों के रूप में छोड़ देती हैं, क्योंकि वे मनु० याज्ञ० आदि द्वारा सामान्यत: सभी लोगों के लिए व्यवस्थित किये गये हैं। मनु यमों एवं नियमों को गिनाते नहीं, किन्तु याज्ञ० ने दस यमों एवं दस नियमों का उल्लेख किया है (याज्ञ० ३।३१२-३१३) । देखिए ऊपर पाद-टिप्पणी २३ । योगसूत्र के पाँच यम ये हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय (न चुराना, अर्थात् जो शास्त्रविहित न हो उसे दूसरों से न लेना), ब्रह्मचर्य (अन्य ज्ञानेन्द्रियों के साथ जननेन्द्रिय पर नियन्त्रण रखना) एवं अपरिग्रह (शरीर की रक्षा के लिए जितना आवश्यक हो उससे अधिक किसी अन्य से न प्राप्त करना)। जब ये जाति, देश, काल एवं अवसरों की चिन्ता (परवाह) न करके किये जाते हैं (अर्थात् अभ्यास या प्रयोग में लाये जाते हैं) तो ये योगी के लिए महाव्रत कहे जाते हैं। जैसा कि मन का कथन है, यमों का पालन सबको करना है, किन्तु कछ अपवाद भी हैं। यमों का पालन व्रत है किन्तु उनका कठोर पालन (बिना किसी अपवाद के) महाव्रत कहलाता है, जिसे योगी लोग सभी दशाओं में बिना किसी अपवाद के करते हैं। यमों एवं नियमों का पालन कैवल्य । मक्ति की प्राप्ति के लिए पहला सोपान है, क्योंकि जब तक आत्मा सभी प्रकार की कामजनित एवं अहंभावी इच्छाओं से दूर होशद्ध नहीं हो पाता तब तक वह उस दिव्य या आध्यात्मिक जीवन को नहीं प्राप्त कर सकता जिसकी योग की उच्चतर दशा में आवश्यकता होती है। इसका क्या तात्पर्य है, इसे हम अधोलिखित ढंग से समझ सकते हैं-सामान्य लोगों के लिए इन बातों में स्मृतियाँ कूछ छूट देती हैं । उदाहरणार्थ, क्षत्रिय का कर्तव्य है युद्ध करना और मनु (७/८७, ८६) ने इसी से व्यवस्था दी है कि क्षत्रिय को युद्धस्थल से भाग नहीं आना चाहिए और वे क्षत्रिय जो दोनों पक्षों में लड़ाई करते हैं और ऐसा करते हुए मर जाते हैं, वे स्वर्ग में पहुँचते हैं । और देखिए याज्ञ० (१।३२४) । अत: क्षत्रिय के लिए हिंसा की अनुमति है, किन्तु यदि कोई क्षत्रिय योग का अनुसरण करना चाहता है तो उसे हिंसा का परित्याग करना पड़ता है। इसी प्रकार स्मृतियों ने पाँच अवसरों पर असत्य-भाषण क्षम्य ठहराया है (गौतम २३।२६, वसिष्ठ १६।३६, आदिपर्व ८२।१६, शान्ति० ३४१२५ एवं १६५।३०, और देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड ३, पृ० ३५३ एवं पाद-टिप्पणियाँ ५३६ एवं ५३७)। मनु (४११३८) ने सामान्य लोगों के लिए एक छूट दी है-'अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए' (न ब्रूयात् सत्यमप्रियम)। किन्तु जो योग के अनुशासन में आता है उसे सदा सत्य बोलना चाहिए, केवल एक अपवाद यह है कि सत्य बोलने से प्राणियों का नाश न हो। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।३१२) में आया है कि विवाह पक्का कराने में असत्य भाषण (जो स्मतियों द्वारा क्षम्य माना गया है) का त्याग करना चाहिए, तथा व्रतधारी व्यक्ति को चाहिए कि वह पुत्र या शिष्य को दण्डित न करे। याज्ञ० (११७६) एवं मनु ( ४११२८ ) में आया है कि वह स्मृति को उद्धत करते हुए योग के ६ अंग (यम, नियम एवं आसन छोड़ दिये गये हैं और तर्क जोड़ दिया गया है) दिये हैं। बृहद्योगियाज्ञवल्क्य (२०३५) एवं लिंगपुराण (१८८-६) ने आठ अंगों का उल्लेख किया है । अपरार्क० (पृ०६६०) ने व्याख्या को है-'ततो मनोबुद्धिपरित्यागेनात्मनि विमर्शस्तर्कः।' वायुपुराण (१०। ७६) ने पाँच के नाम दिये हैं-प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा एवं स्मरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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